"गुरु गोबिंद सिंह जी का अमूल्य योगदान: साहस, सत्य और बलिदान की प्रेरणा" : आचार्य रमेश
सचदेवा
गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के दसवें और अंतिम
गुरु थे, जिनका जन्म 22 दिसम्बर 1666 को पटना साहिब, बिहार में हुआ था। गुरु गोबिंद सिंह जी ने न केवल सिख धर्म
को मजबूत किया, बल्कि भारतीय समाज को अपनी
शिक्षाओं और प्रेरणाओं से एक नया मार्ग भी दिखाया। उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं
जा सकता, क्योंकि उन्होंने अपनी
शौर्य और साहसिकता के साथ धर्म, समाज और मानवता
के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाया।
गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन संघर्ष, बलिदान और शौर्य का प्रतीक था। उन्होंने समाज में व्याप्त
असमानता, जुल्म और अन्याय के खिलाफ
हमेशा आवाज उठाई। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि हमें हर हालत में सत्य, धर्म और इंसानियत के लिए संघर्ष करना चाहिए। उन्होंने खालसा
पंथ की नींव रखी, जिसका उद्देश्य
समाज में समानता, भाईचारे और
न्याय की भावना को फैलाना था। गुरु जी ने 1699 में अमृत संचार कर के पाँच प्यारे की उपस्थिति में खालसा पंथ का गठन किया।
खालसा पंथ के माध्यम से गुरु जी ने धार्मिक कट्टरता और भेदभाव को समाप्त करने का
मार्ग प्रशस्त किया।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने न केवल धार्मिक विचारों
का प्रचार किया, बल्कि उन्होंने अपनी तलवार
से धर्म की रक्षा भी की। उनका प्रसिद्ध युद्ध साहस और कर्तव्य के प्रतीक के रूप
में याद किया जाता है। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में भी कभी किसी प्रकार के
डर का सामना नहीं किया और अपने परिवार के साथ बलिदान दिया।
गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन अनेक साहसिक घटनाओं
से भरा हुआ था, लेकिन एक घटना ऐसी है, जो न केवल सिख समाज, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए एक अमूल्य शिक्षा बन गई। यह घटना गुरु गोबिंद
सिंह जी के अद्वितीय साहस, धैर्य और धर्म
के प्रति अडिग निष्ठा की मिसाल प्रस्तुत करती है। एक घटना जो उनके जीवन में अत्यंत
महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक मानी जाती है, वह है "पाँच प्यारे" की घटना। यह घटना सिख इतिहास में एक मील का
पत्थर मानी जाती है और आज भी समाज के लिए एक अमूल्य संदेश है।
सन् 1699 में गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनन्दपुर साहिब में "खालसा पंथ" की नींव
रखी। उन्होंने धर्म, सत्य और न्याय
के लिए अपने अनुयायियों को प्रेरित किया। गुरु जी ने पाँच साहसी और निष्कलंक
व्यक्ति चुनने का निर्णय लिया, जो धर्म की
रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार हों। गुरु जी ने एक दिन
दरबार में अपने अनुयायियों से पूछा कि कौन उनके लिए बलिदान देने के लिए तैयार है।
इस पर पाँच साहसी पुरुष भाई दया राम (दया सिंह के रूप में प्रसिद्ध), भाई धर्म चंद (धर्म सिंह के रूप में प्रसिद्ध), भाई मोहकम चंद (मोहकम सिंह के रूप में प्रसिद्ध), भाई हिम्मत चंद (हिम्मत सिंह के रूप में प्रसिद्ध), और भाई साहिब चंद (साहिब सिंह के रूप में प्रसिद्ध) ने अपनी
जान की परवाह किए बिना गुरु जी के पास आए। उन्होंने गुरु से अनुरोध किया कि उन्हें
बलिदान के लिए चुना जाए। इन पाँच प्यारे व्यक्तियों को गुरु गोबिंद सिंह जी ने
अमृत से स्नान कराया और उन्हें 'पाँच प्यारे' के रूप में सम्मानित किया।
इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि गुरु गोबिंद
सिंह जी केवल शब्दों से नहीं, बल्कि कार्यों
से भी धर्म और सत्य के लिए संघर्ष करते थे। इस घटना ने यह सिखाया कि सच्चे अनुयायी
वे होते हैं, जो अपने विश्वासों के लिए
किसी भी कठिनाई को स्वीकार करते हैं और बिना किसी भय के अपने कर्तव्यों का पालन
करते हैं। गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह भी सिद्ध किया कि धर्म की रक्षा केवल युद्ध
और शस्त्रों से नहीं, बल्कि सही सोच
और बलिदान से भी की जा सकती है।
पाँच प्यारे के बलिदान से प्रेरित होकर समाज में
धर्म और न्याय की स्थापना की जा सकती है। यह घटना हमें यह भी सिखाती है कि हमें
अपने विश्वासों के लिए बिना किसी डर के खड़ा रहना चाहिए और समाज की भलाई के लिए
समर्पित रहना चाहिए।
गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षाओं का संदेश आज भी
हमारे जीवन में प्रासंगिक है। उन्होंने हमेशा यह कहा कि, "सत श्री अकाल", और मानवता की सेवा के लिए हर व्यक्ति को आगे आना चाहिए।
उनका जीवन यह बताता है कि केवल बाहरी शक्ति से नहीं, बल्कि आंतरिक शक्ति से भी किसी भी संघर्ष का सामना किया जा सकता है।
गुरु गोबिंद सिंह जी का योगदान केवल सिख धर्म तक
ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने
भारतीय समाज को अपनी शिक्षाओं और कार्यों से एक नई दिशा दी। उनके जीवन के प्रति
श्रद्धा और सम्मान हमारी ज़िम्मेदारी है, क्योंकि उनकी शिक्षाएँ आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।
स्वतंत्र लेखक
आचार्य रमेश सचदेवा
निदेशक, ऐजू-स्टेप फाउंडेशन
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