Wednesday, May 21, 2025

अंकों की दौड़ में खोती शिक्षा – क्या हम केवल टॉपर बना रहे हैं, इंसान नहीं?

 


अंकों की दौड़ में खोती शिक्षा – क्या हम केवल टॉपर बना रहे हैं, इंसान नहीं?

(अंकों की दौड़ पर मार्मिक लेख)

आज भारत के हर राज्य, हर जिले और हर शहर में बोर्ड परीक्षा परिणामों की घोषणाएं उत्सव की तरह मनाई जाती हैं। किसी ने 99.8% अंक प्राप्त किए, कोई पूरे प्रदेश में टॉप कर गया, और किसी स्कूल ने सौ प्रतिशत परिणाम का ढिंढोरा पीट दिया।    
देखने में लगता है कि देश में होनहार विद्यार्थियों की एक पीढ़ी तैयार हो रही है — जो बुद्धिमान है, मेहनती है और भविष्य की उम्मीद जगाती है।

परन्तु जब हम इस सफलता के पीछे के पर्दे को हटाकर देखते हैं, तो तस्वीर कुछ और ही निकलती है।

जिस शिक्षा प्रणाली में एक समय नैतिकता, समझ, विवेक और कौशल को प्राथमिकता दी जाती थी, आज वह प्रणाली प्रतिशत और परिणाम के संकरे खांचे में सिमट कर रह गई है।

कोचिंग सेंटर और ट्यूशन संस्थान अपने छात्रों को "एयर-कंडीशन्ड रेस" में दौड़ा रहे हैं। बच्चे सुबह स्कूल जाते हैं, फिर कोचिंग, फिर ट्यूशन, और देर रात तक प्रैक्टिस पेपर। यह दौड़ दिन-ब-दिन तीव्र होती जा रही है।

स्कूल अपना श्रेय लेते हैं। कोचिंग सेंटर अपना बैनर लगाते हैं। लेकिन जब राज्य या जिले के टॉपर का बयान आता है, तो वह कहता है — "मैंने कोई ट्यूशन नहीं ली, यह सब मेरी मेहनत का फल है।"

इस कथन में कहीं न कहीं दबाव झलकता है। शायद यह कहने की छूट ही नहीं दी जाती कि उसने कोचिंग ली, क्योंकि इससे स्कूल की प्रतिष्ठा या परिवार की छवि को ठेस पहुंच सकती है।

हमारा प्रश्न यह नहीं कि उसने कोचिंग ली या नहीं — प्रश्न यह है कि हम कितना सच स्वीकारने को तैयार हैं?

जब अंक ही सफलता का पैमाना बन जाते हैं, तब मूल्य, मनोबल और मानसिक स्वास्थ्य को हाशिए पर धकेल दिया जाता है।

हमने कई बार सुना और देखा है — 98% लाने वाले बच्चे ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह 99% नहीं ला सका। 95% लाने वाले को मां-बाप ने ताना मारा —पड़ोसी के बेटे को देखो, वो तो 97% लाया है।

क्या यही शिक्षा है? क्या यही प्रेरणा है?

बच्चे अब सवालों को समझने के लिए नहीं, रटने के लिए पढ़ रहे हैं। उनमें जीवन जीने की समझ नहीं, केवल अंक पाने की तकनीक विकसित हो रही है।

कितने बच्चे ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि परीक्षा में 100 में 100 लाने के बाद भी ज़िंदगी के सवाल बहुविकल्पीय नहीं होते।

दिखावे की इस दुनिया में सोशल मीडिया पोस्ट, बधाई संदेश और होर्डिंग्स में घिरे ये टॉपर्स कई बार अकेलेपन और अवसाद से घिरे होते हैं। वे मुस्कुरा रहे होते हैं, पर भीतर से थक चुके होते हैं।

अफसोस की बात है कि आज विद्यालय और अभिभावक भी बच्चों को एक अच्छा इंसान बनाने की जगह एक ब्रांडेड नंबर बनाने में लगे हुए हैं।

अगर हम यथार्थ को समझें और शिक्षा को जीवन-केंद्रित बनाएं — तो हमें अंकों की इस दौड़ से बाहर आना होगा।

हमें ऐसा वातावरण देना होगा जहां बच्चे प्रश्न पूछें, जीवन को समझें, अपनी रुचियों को विकसित करें और असफलता से भी सीख सकें।

वरना हम टॉपर तो बहुत बना लेंगे, पर जीवन के संघर्षों में हार मानने वाले खोखले इंसान भी स्वयं तैयार कर रहे होंगे।

लेखक:
आचार्य रमेश सचदेवा  
(शिक्षाविद् एवं सामाजिक चिंतक)     
जी25 ऐजू स्टेप प्राइवेट लिमिटेड

6 comments:

Sonu Bajaj said...

शिक्षा के व्यापारीकरण से सब हो रहा है....

Anonymous said...

Education is india no.1 business

Amit Behal said...

सत्य तो यही है भाईजान

Director, EDU-STEP FOUNDATION said...

Thanks a lot.

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Thanks a lot.

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