युद्धविराम – हथियारों की चुप्पी, पर दिलों में डर बाकी
✍️ लेखक: आचार्य
रमेश सचदेवा
जब बंदूकें शांत हो जाती
हैं, और मोर्चों पर खामोशी छा जाती है, तब यह भ्रम पैदा होता है कि शायद अब शांति लौट
आई है। परंतु सच्चाई यह है कि युद्धविराम केवल एक समझौता होता है, न कि स्थायी
समाधान। हथियारों की चुप्पी भले ही दिखाई
दे, लेकिन दिलों में जो डर और अविश्वास बाकी रह जाता है, वह आने वाले कल
के लिए एक और संघर्ष का बीज बो सकता है।
ऐसा प्रतीत होता है मानो
युद्धविराम शांति की ओर पहला कदम है, लेकिन इसके पीछे छिपा तनाव, असुरक्षा और
राजनीतिक रणनीति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। युद्ध की विभीषिका झेल चुके लोग
जानते हैं कि एक मूक मोर्चा भी उतना ही भयावह होता है जितना एक सक्रिय युद्ध। बचपन में छिनी मुस्कान, बिखरे हुए परिवार, और हर रात की अनिश्चितता — यह सब
युद्धविराम की सतह के नीचे दबे रहते हैं।
युद्धविराम की घोषणा के
पीछे अक्सर कूटनीतिक दबाव, अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप या आंतरिक असंतोष होता है, न कि आपसी
विश्वास। जब दो पक्ष बिना विश्वास के हथियार डालते हैं, तो डर स्वाभाविक है। बॉर्डर पर तैनात जवान, नागरिकों की बेचैनी, और भविष्य की अनिश्चितता
— यह सब
युद्धविराम के "शांत" माहौल में भी मौजूद रहते हैं।
इस भय को खत्म करने के लिए
केवल हथियारों को खामोश करना पर्याप्त नहीं है। जरूरत है संवाद
की, पारदर्शिता की और विश्वास बहाली की। शिक्षा,
संस्कृति और
व्यापार के माध्यम से जब दोनों पक्ष आम जनता को जोड़ते हैं, तभी दिलों का डर धीरे-धीरे
मिटता है।
अतः युद्धविराम एक आवश्यक
पहल है, परंतु इसे अंतिम समाधान मान लेना एक भूल होगी। जब तक दिलों से डर
नहीं मिटता, और मन से घृणा नहीं हटती, तब तक कोई भी युद्धविराम अधूरा है।
अंततः, असली शांति तब
ही आएगी जब बंदूकें नहीं, संवाद बोलेगा; और सीमाएं नहीं, संबंध बनेंगे।
1 comment:
Shi baat likhi h aapne. Dar therre theere vishwas me badlega.Yudh se nuksan hi h dono deso ka.
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