समय से पहले जवान होता बचपन – समाज के लिए खतरे की घंटी
आज का दौर तकनीक, गति और उपभोक्तावाद का है। यह कहना गलत नहीं होगा कि हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ हर चीज़ पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ी से बदल रही है – दुर्भाग्य से बचपन भी। जिन मासूम उम्रों में बच्चे खिलौनों के साथ खेलते और कहानियाँ सुनते थे, अब वही उम्र मोबाइल स्क्रीन, यूट्यूब चैनल और इंस्टैंट फ़ूड के घेरे में बीत रही है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि किशोरावस्था के लक्षण, जो सामान्यतः 12 से 15 वर्ष की आयु में दिखाई देने चाहिए, आज 8–9 वर्ष के बच्चों में ही नज़र आने लगे हैं। यह केवल एक “प्राकृतिक परिवर्तन” नहीं है, बल्कि एक गंभीर सामाजिक और मानसिक चुनौती है, जिसके दूरगामी दुष्परिणाम हो सकते हैं।
इसके पीछे कई कारण साफ़ तौर पर दिखाई देते हैं —
रासायनिक तत्वों से भरा भोजन, हार्मोन युक्त पैकेजिंग, इंटरनेट पर बिना नियंत्रण के उपलब्ध अशोभनीय सामग्री, माता–पिता की व्यस्त जीवनशैली और खेल–मैदानों का घटता उपयोग। इसका परिणाम यही है कि बच्चे न केवल शारीरिक रूप से समय से पहले परिपक्व दिखने लगते हैं, बल्कि भावनात्मक अस्थिरता, चिड़चिड़ापन और गलत संगति की ओर भी आसानी से आकर्षित होने लगते हैं।
ऐसे में समाज और विशेष रूप से अभिभावकों की जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है।
बचपन को “तेज” करने की आवश्यकता नहीं है — उसे संरक्षित और संवर्धित करने की आवश्यकता है।
इसके लिए कुछ छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कदम अत्यंत आवश्यक हैं:
- बच्चों के खान–पान में प्राकृतिक और पौष्टिक तत्वों को पुनः स्थान दें।
- स्क्रीन टाइम को सीमित कर संवाद का समय बढ़ाएँ।
- रोजाना खेलकूद और रचनात्मक गतिविधियों को अनिवार्य रूप से शामिल करें।
- बच्चों के साथ बैठकर कहानियों, जीवन–मूल्यों और अनुभवों पर चर्चा करें।
- पार्क, मैदान, पुस्तकालय आदि जैसे सकारात्मक वातावरण का हिस्सा बनाएं।
आज यदि हम यह सोचकर चुप रहे कि “अभी तो सब ठीक है”, तो आने वाले वर्षों में हमें एक ऐसी पीढ़ी का सामना करना पड़ सकता है जिसका बचपन अधूरा और यौवन असंतुलित होगा।
यह समय सावधान होने का है — क्योंकि खतरे की घंटी बज चुकी है।
7 comments:
Awesome share 👍
आचार्य जी नमस्ते।
समय से पहले जवान होता बचपन...वाक्य में ही खतरे की घंटी है। वर्तमान समय की मांग भी यही है और आपने बेहद ही गंभीर व चिंतनीय विषय पर ऐसा लेख लिखा है। जो अभिभावकों को सही निर्णय लेने में सहायता करेगा
सुदेश कुमार आर्य
Technology kills innocence. Too much use of technology kills culture. Balance between modernity and actual life is the need.
Rightly said Brother...
Thanks a lot.
Thanks a lot.
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