"बचपन की बदलती परिभाषा – पिज़्ज़ा, पेट्टीज़ और प्रोफाइल के बीच खोता हुआ मासूम मन"
लेखक: आचार्य
रमेश सचदेवा
“पिज़्ज़ा, बर्गर, पेट्टीज़,
चॉकलेट और व्हाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टा — दूर बचपन।
गरीबी के निशानी या सफलता के स्तम्भ?”
यह पंक्तियाँ मात्र शब्द नहीं, बल्कि आज के
युग के उस गहरे द्वंद्व को उजागर करती हैं जहाँ बचपन अब मिट्टी से नहीं, मोबाइल से बन
रहा है। जहाँ चॉकलेट मुस्कान का कारण नहीं, बाय डिफॉल्ट रिवॉर्ड बन गया
है। जहाँ खेलने की ज़मीन अब डिजिटल स्क्रीन पर सिमट गई है।
कभी ऐसा भी बचपन था...
जहाँ खिलौने लकड़ी के होते थे, पर रिश्ते
असली।
जहाँ जूतों में
छेद होता था, पर दोस्ती में नहीं।
जहाँ एक पतंग
उड़ाना ही दिन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती थी।
तब माँ के हाथ की रोटी दुनिया की सबसे स्वादिष्ट
चीज़ लगती थी। और दादी की कहानियाँ ज्ञान का खजाना होती थीं।
और अब...
अब बचपन स्मार्टफोन से शुरू होता है और इंस्टा
रील्स पर खत्म।
अब बच्चे 'डोमिनोज़'
के पिज़्ज़ा से
ज्यादा 'स्कूल टिफिन' से परहेज़ करते हैं।
अब रिश्ते
"फॉलो" और "लाइक" पर टिके हैं — संवाद और स्पर्श की मिठास
खोती जा रही है।
सवाल उठता है...
क्या ये सुविधाएं बचपन को सफल बना रही हैं,
या बचपन की मूल आत्मा को निगल रही हैं?
क्या मोबाइल, इंस्टा, पिज़्ज़ा और
चॉकलेट की उपलब्धता ही आधुनिकता है?
या यह उस
मूल्यहीन उन्नति की ओर कदम है जिसमें खेल, संवाद, रिश्ते और संवेदना हारते जा रहे हैं?
मूल्य और मासूमियत का असली
रूप:
सच्चा बचपन वो था जिसमें:
- सबके साथ बैठकर एक ही थाली में खाना पड़ता था।
- स्कूल से आकर सीधे खेलने भागते थे — न कि वीडियो कॉल
पर।
- जब गलती पर डांट मिलती थी, तो शिकायत
नहीं, समझ मिलती थी।
आज की सुविधाएं उस सरलता को छीन रही हैं,
जिसने एक पीढ़ी
को जिंदा दिल और सहनशील बनाया।
बचपन अगर केवल वस्तुओं से भर जाएगा, तो भावनाएं
खाली रह जाएंगी।
हमें यह समझना
होगा कि सुख-सुविधाएं आवश्यक हैं, लेकिन वे बचपन की परिभाषा
नहीं बन सकतीं।
हमें पिज़्ज़ा और पेट्टीज़ से ज़्यादा संस्कार, संवेदना और संवाद पर ध्यान देना
होगा।
क्योंकि वही वे
स्तम्भ हैं, जो किसी बच्चे को केवल सफल नहीं — समर्थ और
संवेदनशील इंसान बनाते हैं।
सत्य तो यह है कि
"जिस घर में खिलौने नहीं थे,
वहाँ बच्चों ने जीवन सीखा।
और जहाँ सब कुछ मिला, वहाँ बच्चा होना ही भूल गए।"
2 comments:
समय से पूर्व परिपक्व होता मासूम बचपन...😔
परिपक्व नहीं हो रहे बल्कि परिपक्व न होने की ओर अग्रसर हैं
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