
गुरु पूर्णिमा विशेष लेख
गुरु – ज्ञान का दीप या भ्रम का ब्रांड?
✍️ आचार्य रमेश सचदेवा
गुरु शब्द दो अक्षरों से बना है – ‘गु’ यानी अंधकार और ‘रु’ यानी उसका नाश करने वाला। गुरु वह है जो अज्ञान के अंधकार को ज्ञान के प्रकाश से मिटा दे। परंतु आज यह शब्द इतना अधिक प्रयोग और प्रदर्शन का विषय बन गया है कि इसका मूल स्वरूप धुंधला पड़ गया है।
प्रत्येक जीवन की शुरुआत माँ से होती है — वही पहला शब्द, पहला स्पर्श, पहली सीख देती है। इसलिए माँ को ही प्रथम गुरु माना गया है। लेकिन जीवन की यात्रा में एक ऐसा मार्गदर्शक आवश्यक होता है जो केवल किताबों की बातें नहीं, बल्कि जीवन जीने की दृष्टि प्रदान करे।
आज के समय में गुरु बनना एक प्रकार का आकर्षक पेशा बन गया है। प्रवचन मंच, भव्य आयोजन, इंस्टाग्राम फॉलोअर्स, दान-पेटी, और भगवा वेश – सबने गुरु को ब्रांड और शो-पीस बना दिया है।
कभी गुरु का कार्य था बुद्धि जाग्रत करना, आज उनका कार्य बन गया है श्रद्धालु को आश्रित बनाना।
शिष्य अब स्वतंत्र सोच नहीं रखता, बल्कि "गुरु बोले सो सत्य" मानकर अंधभक्ति में लीन रहता है।
सोशल मीडिया के युग में हर कोई कुछ पोस्ट, उद्धरण और वीडियो देख कर स्वयं को ज्ञानी और विचारक घोषित कर रहा है। ज्ञान की गहराई की जगह अब प्रदर्शन और प्रसार ने ले ली है।
गुरु वह नहीं जो मनोकामना पूरी करवाने का वादा करे, गुरु वह है जो शिष्य के भीतर प्रश्नों की ज्योति जलाए। गुरु वह नहीं जो चमत्कार दिखाए, गुरु वह है जो जीवन को दिशा दे।
आज गुरु के नाम पर पंथ, ट्रस्ट, पैकेज और फीस जैसे शब्द जुड़ गए हैं। आज सोचने का विषय यह है कि क्या यह वही गुरु-तत्व है जिसकी बात वेदों, उपनिषदों और संतों ने की थी?
सच्चा गुरु वही है:
- जो स्वयं साधक हो
- जो दिखावे से परे हो
- जो शिष्य को आत्मनिर्भर बनाए
- जो केवल ज्ञान दे, भ्रम नहीं
इस गुरु पूर्णिमा पर यह पूछना अधिक आवश्यक है कि —
क्या हम सही गुरु की तलाश में हैं या भीड़ का हिस्सा बनकर भ्रमित हो रहे हैं?
क्या हमारा गुरु हमें मुक्त कर रहा है या हमें उसकी छाया में सीमित कर रहा है? क्या हम विवेक से चयन कर रहे हैं या सिर्फ नाम, वेश और प्रचार से प्रभावित हो रहे हैं? शिष्य का भी धर्म है कि वह केवल अनुसरण न करे, प्रश्न करे, समझे, जांचे और जागरूक रहे। गुरु-शिष्य परंपरा का आधार ही संवाद और विवेक रहा है — अंधभक्ति नहीं।
गुरु पूर्णिमा केवल पूजा का दिन नहीं है, यह दिन है गहन आत्ममंथन का — कि क्या हम सही दिशा में हैं? क्या हमने अपने जीवन के लिए सही पथप्रदर्शक चुना है?
गुरु का सम्मान तभी सार्थक है जब वह सत्य, साधना और सादगी से जुड़ा हो। अन्यथा गुरु शब्द केवल एक छवि, एक ब्रांड और एक भ्रम बनकर रह जाएगा।
शिष्य का भी उत्तरदायित्व है — वह केवल नतमस्तक न हो, वह सोचे, समझे, प्रश्न करे, और सत्य का चयन विवेक से करे।
गुरु का सम्मान तभी सार्थक है जब वह शिष्य को अपने भीतर के दीपक तक पहुँचाए, न कि उसे भ्रम के ब्रांड में उलझा दे।
(लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा,
संस्थापक –G25 EDU-STEP Pvt. Ltd.)
📞 संपर्क: 9416925427
12 comments:
Very well described the topic .
बदलते समय में गुरु की भूमिका पर अति उत्तम विचार l
हकीकत भरा और भविष्य की संभावना को राह दिखाने वाला लेख
Thanks ji
आभार
शुक्रिया जी
Very well said
Thanks
गुरु पूर्णिमा की हार्दिक बधाई बड़े भाई...गुरु की वास्तविक भूमिका की व्याख्या करता उत्कृष्ट लेख💐🙏
गुरु का रूप और स्वरुप बहुत तेज़ी से बदला है. वो गुरु जिसकी बात इस लेख में की गई है. वो अब पुस्तकों में ही रह गई है. इसके कारण अनेक है. लेख सटीक
आप जैसे गुरुजन हैं अभी जो खुद एक किताब हैं
आभार भाई साहब
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