Thursday, July 31, 2025

"स्वर को समर्पित जीवन: रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर एक श्रद्धांजलि"


— 31 जुलाईपुण्यतिथि पर विशेष लेख

"स्वर को समर्पित जीवन: रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर एक श्रद्धांजलि"
✍️ लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

"जिसे खुदा की आवाज़ कहा गयाजो सुरों में रम गया और जिसने इंसानियत के लिए गाया – वो थे मोहम्मद रफ़ी साहब।"

हर दौर की अपनी एक आवाज़ होती है। और जब हम 20वीं सदी के भारतीय सिनेमा की बात करते हैंतो वह आवाज़ मोहम्मद रफ़ी की होती है। मधुरताविनम्रता और विविधता से भरी उनकी गायकी ने न केवल लाखों दिलों को छुआबल्कि एक ऐसा संगीत-संसार रच दिया जिसे आज भी उतने ही आदर और प्रेम से याद किया जाता है। 31 जुलाई 1980 को जब उन्होंने अंतिम साँस लीतब लगा जैसे एक युग का अंत हो गया। लेकिन सच यह है कि रफ़ी साहब का युग कभी ख़त्म नहीं हुआ — उनकी आवाज़ आज भी जीवित हैचलती हैगुनगुनाई जाती है।

🎤 एक फकीर से शुरू हुई आवाज़ की यात्रा

मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव में हुआ था। संगीत उनके परिवार में नहीं थालेकिन कुदरत ने जो दियावह किसी विश्वविद्यालय से नहीं सीखा जा सकता था। लाहौर की गलियों में एक फकीर की गूंजती आवाज़ ने उन्हें प्रेरित किया। उन्होंने उस आवाज़ की नकल करते-करते अपनी खुद की पहचान बना ली।

13 साल की उम्र में एक सार्वजनिक मंच पर गाकर उन्होंने दर्शकों का दिल जीत लिया। संगीतकार श्याम सुंदर ने वहीं उनकी प्रतिभा को पहचानाऔर यही उनकी पेशेवर यात्रा की शुरुआत बनी।

🎶 चोटी तक का सफर — और फिर चुनौती

रफ़ी साहब ने 1940 के दशक में फ़िल्मी दुनिया में कदम रखा और नौशादशंकर-जयकिशनओ.पी. नैय्यरलक्ष्मीकांत-प्यारेलालमदन मोहनएस.डी. बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर हिंदी सिनेमा को ऐसे अनगिनत गाने दिए जो आज भी अमर हैं।

पर 1970 के दशक में जब किशोर कुमार का दौर आयातो रफ़ी के करियर में ठहराव आया। मीडिया और इंडस्ट्री के कुछ तबकों ने यहाँ तक कह दिया कि "रफ़ी साहब खत्म हो गए हैं।" यह दौर उनके लिए बेहद कठिन था। ऐसा कहा जाता है कि वे डिप्रेशन में चले गए थे। दाढ़ी बढ़ा लीआत्म-संदेह में डूब गए और कहा, “मैं गायक नहीं हूं।

यह बात सुधेश भोसले ने हाल ही में एक साक्षात्कार में साझा कीजो रफ़ी साहब की उस भीतरी लड़ाई की झलक देती है जिसे आम लोग कभी नहीं देख पाते।

🌟 कला का पुनर्जन्म — ‘पर्दा है पर्दा’ से वापसी

रफ़ी साहब की वापसी भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं थी। मनमोहन देसाईजो उनके बड़े प्रशंसक थेने उन्हें ‘अमर अकबर एंथनी’ में गाने का आग्रह किया। पहले तो रफ़ी साहब ने मना कर दियालेकिन जब उन्हें भरोसा दिलाया गयातो उन्होंने ‘पर्दा है पर्दा’ गाया — और गाना हिट हो गया। इसके बाद ‘शिर्डी वाले साईं बाबा’ जैसे गानों से उन्होंने फिर से अपनी जगह बनाई।

🏆 सम्मान और विरासत

रफ़ी साहब को छह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। यह सम्मान केवल पुरस्कारों में नहीं थाबल्कि उन करोड़ों लोगों के दिलों में था जो उनकी आवाज़ से खुद को जोड़ते हैं।

उनके गीतों ने ना केवल फिल्मों को हिट कियाबल्कि रिश्तोंभावनाओंऔर जीवन के हर रंग को छू लिया — ‘तेरी प्यारी प्यारी सूरत को’, ‘क्या हुआ तेरा वादा’, ‘ये रेशमी जुल्फें’, ‘चाहूंगा मैं तुझे’, ‘खुदा भी आसमान से जब ज़मीन पर देखता होगा’ — ये गाने सिर्फ गाने नहीं हैंयह भावना हैं।

❤️ रफ़ी: इंसान पहलेकलाकार बाद में

रफ़ी साहब की विनम्रताधार्मिक आस्था और सादगी ने उन्हें बाकी कलाकारों से अलग बनाया। उन्होंने कई गाने बिना मेहनताना लिए गाएनए संगीतकारों को मौका दियाऔर गानों की रॉयल्टी की बहस में भी कहा, "जो काम कियाउसका मेहनताना मिल गया — अब और क्यों?"

उनका जीवन सबक देता है कि महानता केवल प्रतिभा से नहींबल्कि स्वभाव से भी आती है।

 एक अंतहीन गूंज

रफ़ी साहब चले गए — पर उनकी आवाज़ आज भी हवाओं में तैरती है। नए गायक उनसे प्रेरणा लेते हैंपुराने श्रोता उन्हें याद करते हैंऔर युवा पीढ़ी उनके गीतों में भावनाओं की शुद्धता ढूंढती है।

हर साल 31 जुलाई को उनके प्रशंसक उन्हें याद करते हैंपर सच यह है कि मोहम्मद रफ़ी को केवल याद नहीं किया जाता — उन्हें जिया जाता हैगुनगुनाया जाता है।

"वो आवाज़ जो आज भी रुह को छूती है — वो रफ़ी हैं।" 

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