Thursday, July 31, 2025

"शेर सिंह से उधम सिंह तक: जलियांवाला बाग का बदला लेने वाला योद्धा"

 


"शेर सिंह से उधम सिंह तक: जलियांवाला बाग का बदला लेने वाला योद्धा"      

— 31 जुलाई पर शहीद उधम सिंह को श्रद्धांजलि

लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

"मैंने उसे मारा है, मैंने उसे जानबूझकर मारा है... यह बदला था!"
ये शब्द थे उस भारतीय क्रांतिकारी के, जिसने 13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड का जवाब इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया। वह कोई और नहीं, बल्कि भारत माता का सपूत शहीद उधम सिंह था। 31 जुलाई 1940 को उन्होंने लंदन की पेंटनविले जेल में फांसी पाई, लेकिन उससे पहले उन्होंने वह कर दिखाया जिसे पूरे देश ने एक संतोष और सम्मान के साथ याद रखा।

बचपन: अनाथालय में पला, पर आत्मबल से भरा

26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे शेर सिंह ने बहुत कम उम्र में अपने माता-पिता को खो दिया। उनके पिता सरदार तहल सिंह एक रेलवे वाचमैन थे। मां नारायण कौर का देहांत 1901 में और पिता का 1907 में हो गया। इसके बाद वह और उनके भाई अमृतसर के अनाथालय में दाखिल हुए। एक अनाथ बालक होने के बावजूद देश के लिए जो भावना उनके भीतर थी, वह किसी राजवंशीय योद्धा से कम नहीं थी।

धर्मनिरपेक्षता की मिसाल: राम मोहम्मद सिंह आज़ाद

उधम सिंह ने जीवन में ऐसा नाम अपनाया जो पूरे भारत की आत्मा को दर्शाता है। उन्होंने खुद को राम मोहम्मद सिंह आज़ाद कहा — एक नाम जिसमें हिंदू, मुस्लिम और सिख धर्मों का प्रतीकात्मक संगम है। यह नाम उनके विचारों की ऊंचाई और भारतीय एकता के प्रति समर्पण को दर्शाता है।

प्रतिज्ञा: जलियांवाला बाग की मिट्टी से उठी क्रांति की चिंगारी

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेज अफसर जनरल डायर के आदेश पर सैकड़ों निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया गया। उधम सिंह वहाँ मौजूद थे। उन्होंने उस खून से सनी मिट्टी को अपनी मुट्ठी में लिया और प्रतिज्ञा की — "इसका बदला ज़रूर लूंगा!"

दुनिया की खाक छानी, पर नज़र सिर्फ़ लक्ष्य पर

क्रांति का संकल्प लिए उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। वे गदर पार्टी से भी जुड़े और अंग्रेजी राज के विरुद्ध धन और समर्थन जुटाया। 1927 में जब वे भारत लौटे, तो उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर 5 साल की सजा दी।

1931 में रिहा हुए तो पंजाब पुलिस की नजरों से बचते हुए कश्मीर पहुंचे और वहाँ से जर्मनी होते हुए इंग्लैंड पहुंच गए। लक्ष्य अब स्पष्ट था — जलियांवाला बाग के दोषी माइकल ओ’ डायर को सजा देना।

कैक्सटन हॉल में इंसाफ़: गोलियों में गूंजी सदी की गूंज

13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में एक कार्यक्रम चल रहा था, जहां माइकल ओ डायर भी मौजूद था। उधम सिंह अपनी जेब में एक किताब लिए पहुँचे — किताब के पन्नों में छुपी थी एक पिस्तौल। कार्यक्रम के समाप्त होते ही उन्होंने बंदूक निकाली और दो गोलियां चलाकर माइकल ओ डायर को वहीं ढेर कर दिया।

उधम सिंह भागे नहीं। वहीं रुके। गिरफ्तार हुए और ब्रिटिश अदालत में पूरी बहादुरी से बोले —
"मैंने डायर को मारा क्योंकि वह इसका हकदार था। यह बदला था मेरे देश के लिए, मेरे लोगों के लिए।"

मुकदमा, सज़ा और अमरता

उधम सिंह पर मुकदमा चला और उन्हें 4 जून 1940 को हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल, लंदन में फांसी दे दी गई। लेकिन उनकी यह 'हार' नहीं थी — यह एक क्रांतिकारी की जीत, एक युग की प्रेरणा, और एक औपनिवेशिक सत्ता की नैतिक पराजय थी।

आज का भारत उनका ऋणी है

उधम सिंह सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि वो चिंगारी हैं जो अन्याय के अंधेरे में भी जलती रही। उनके साहस ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि भारतवासी ना भूलते हैं, ना क्षमा करते हैं, जब बात स्वतंत्रता और न्याय की हो।

उनकी शहादत आज भी हर भारतीय के दिल में यह विश्वास भरती है —
"हमारा इतिहास केवल सहनशीलता का नहीं, बल्कि प्रतिशोध और न्याय का भी है।"

श्रद्धांजलि

आज, उनकी 78वीं पुण्यतिथि पर, हम सब मिलकर उन्हें नमन करें।     
शहीद उधम सिंह अमर रहें।   
वंदे मातरम्।

 

4 comments:

Dr K S Bhardwaj said...

Salute to the patriots and martyrs.

Anonymous said...

मैं शहीदों की क़ुर्बानी को नमन करता हूँ । आपने लेख बहुत अच्छा लिखा है ।

Anonymous said...

देश को आजाद करवाने में ज्ञात अज्ञात लाखों शहीदों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। मैं सभी को नमन करते हुए अपने बड़े भाई को बधाई प्रेषित करता हूं कि उन्होंने बेहद अच्छा व स्टीक लेख लिखकर शहीद उद्यम सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि दी है।

Amit Behal said...

महान देशभक्तों और देशभक्ति की भावना से ओत प्रोत आपके सुंदर लेख को सलाम💐🙏