Thursday, July 31, 2025

"स्वर को समर्पित जीवन: रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर एक श्रद्धांजलि"


— 31 जुलाईपुण्यतिथि पर विशेष लेख

"स्वर को समर्पित जीवन: रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर एक श्रद्धांजलि"
✍️ लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

"जिसे खुदा की आवाज़ कहा गयाजो सुरों में रम गया और जिसने इंसानियत के लिए गाया – वो थे मोहम्मद रफ़ी साहब।"

हर दौर की अपनी एक आवाज़ होती है। और जब हम 20वीं सदी के भारतीय सिनेमा की बात करते हैंतो वह आवाज़ मोहम्मद रफ़ी की होती है। मधुरताविनम्रता और विविधता से भरी उनकी गायकी ने न केवल लाखों दिलों को छुआबल्कि एक ऐसा संगीत-संसार रच दिया जिसे आज भी उतने ही आदर और प्रेम से याद किया जाता है। 31 जुलाई 1980 को जब उन्होंने अंतिम साँस लीतब लगा जैसे एक युग का अंत हो गया। लेकिन सच यह है कि रफ़ी साहब का युग कभी ख़त्म नहीं हुआ — उनकी आवाज़ आज भी जीवित हैचलती हैगुनगुनाई जाती है।

🎤 एक फकीर से शुरू हुई आवाज़ की यात्रा

मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव में हुआ था। संगीत उनके परिवार में नहीं थालेकिन कुदरत ने जो दियावह किसी विश्वविद्यालय से नहीं सीखा जा सकता था। लाहौर की गलियों में एक फकीर की गूंजती आवाज़ ने उन्हें प्रेरित किया। उन्होंने उस आवाज़ की नकल करते-करते अपनी खुद की पहचान बना ली।

13 साल की उम्र में एक सार्वजनिक मंच पर गाकर उन्होंने दर्शकों का दिल जीत लिया। संगीतकार श्याम सुंदर ने वहीं उनकी प्रतिभा को पहचानाऔर यही उनकी पेशेवर यात्रा की शुरुआत बनी।

🎶 चोटी तक का सफर — और फिर चुनौती

रफ़ी साहब ने 1940 के दशक में फ़िल्मी दुनिया में कदम रखा और नौशादशंकर-जयकिशनओ.पी. नैय्यरलक्ष्मीकांत-प्यारेलालमदन मोहनएस.डी. बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर हिंदी सिनेमा को ऐसे अनगिनत गाने दिए जो आज भी अमर हैं।

पर 1970 के दशक में जब किशोर कुमार का दौर आयातो रफ़ी के करियर में ठहराव आया। मीडिया और इंडस्ट्री के कुछ तबकों ने यहाँ तक कह दिया कि "रफ़ी साहब खत्म हो गए हैं।" यह दौर उनके लिए बेहद कठिन था। ऐसा कहा जाता है कि वे डिप्रेशन में चले गए थे। दाढ़ी बढ़ा लीआत्म-संदेह में डूब गए और कहा, “मैं गायक नहीं हूं।

यह बात सुधेश भोसले ने हाल ही में एक साक्षात्कार में साझा कीजो रफ़ी साहब की उस भीतरी लड़ाई की झलक देती है जिसे आम लोग कभी नहीं देख पाते।

🌟 कला का पुनर्जन्म — ‘पर्दा है पर्दा’ से वापसी

रफ़ी साहब की वापसी भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं थी। मनमोहन देसाईजो उनके बड़े प्रशंसक थेने उन्हें ‘अमर अकबर एंथनी’ में गाने का आग्रह किया। पहले तो रफ़ी साहब ने मना कर दियालेकिन जब उन्हें भरोसा दिलाया गयातो उन्होंने ‘पर्दा है पर्दा’ गाया — और गाना हिट हो गया। इसके बाद ‘शिर्डी वाले साईं बाबा’ जैसे गानों से उन्होंने फिर से अपनी जगह बनाई।

🏆 सम्मान और विरासत

रफ़ी साहब को छह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। यह सम्मान केवल पुरस्कारों में नहीं थाबल्कि उन करोड़ों लोगों के दिलों में था जो उनकी आवाज़ से खुद को जोड़ते हैं।

उनके गीतों ने ना केवल फिल्मों को हिट कियाबल्कि रिश्तोंभावनाओंऔर जीवन के हर रंग को छू लिया — ‘तेरी प्यारी प्यारी सूरत को’, ‘क्या हुआ तेरा वादा’, ‘ये रेशमी जुल्फें’, ‘चाहूंगा मैं तुझे’, ‘खुदा भी आसमान से जब ज़मीन पर देखता होगा’ — ये गाने सिर्फ गाने नहीं हैंयह भावना हैं।

❤️ रफ़ी: इंसान पहलेकलाकार बाद में

रफ़ी साहब की विनम्रताधार्मिक आस्था और सादगी ने उन्हें बाकी कलाकारों से अलग बनाया। उन्होंने कई गाने बिना मेहनताना लिए गाएनए संगीतकारों को मौका दियाऔर गानों की रॉयल्टी की बहस में भी कहा, "जो काम कियाउसका मेहनताना मिल गया — अब और क्यों?"

उनका जीवन सबक देता है कि महानता केवल प्रतिभा से नहींबल्कि स्वभाव से भी आती है।

 एक अंतहीन गूंज

रफ़ी साहब चले गए — पर उनकी आवाज़ आज भी हवाओं में तैरती है। नए गायक उनसे प्रेरणा लेते हैंपुराने श्रोता उन्हें याद करते हैंऔर युवा पीढ़ी उनके गीतों में भावनाओं की शुद्धता ढूंढती है।

हर साल 31 जुलाई को उनके प्रशंसक उन्हें याद करते हैंपर सच यह है कि मोहम्मद रफ़ी को केवल याद नहीं किया जाता — उन्हें जिया जाता हैगुनगुनाया जाता है।

"वो आवाज़ जो आज भी रुह को छूती है — वो रफ़ी हैं।" 

"मुंशी प्रेमचंद: समाज का दर्पण, साहित्य का सम्राट"


 "मुंशी प्रेमचंद: समाज का दर्पण, साहित्य का सम्राट"   

जयंती पर विशेष लेख (31 जुलाई)

लेखक : आचार्य रमेश सचदेवा

"हमारी मानवता तब तक अधूरी है जब तक हम दूसरों के दुख को अपना न समझें।"
ये वाक्य मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक दर्शन की आत्मा हैं। 31 जुलाई, 1880 को जन्मे धनपत राय श्रीवास्तव, जिन्हें हम सब मुंशी प्रेमचंद के नाम से जानते हैं, हिंदी और उर्दू साहित्य के वो स्तंभ हैं जिन्होंने कलम को समाज का आईना बना दिया। आज उनकी 145वीं जयंती पर हम उन्हें नमन करते हैं और उनके अद्वितीय योगदान को याद करते हैं।

जीवन परिचय: एक शिक्षक, एक लेखक, एक क्रांतिकारी विचारक

प्रेमचंद का जन्म उत्तर प्रदेश के बनारस (अब वाराणसी) जिले के लमही गांव में एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का साया उठ गया, जिससे जीवन कठिनाइयों से भरा रहा। लेकिन अभावों में पला यह बालक एक दिन ‘कलम का सिपाही’ बन गया।

बचपन में ही उन्होंने उर्दू में लेखन शुरू किया और "नवाब राय" के नाम से कहानियाँ लिखीं। ब्रिटिश सरकार ने उनकी रचनाओं को विद्रोहात्मक’ कहकर प्रतिबंधित किया, लेकिन वे रुके नहीं — नाम बदलकर 'प्रेमचंद' बना और साहित्य का प्रवाह और तेज़ हुआ।

 लेखन शैली: यथार्थवाद की नई परिभाषा

प्रेमचंद ने भावनाओं से परे जाकर ‘यथार्थ’ को शब्दों में ढाला।  
उनकी कहानियाँ और उपन्यास समाज के दलितों, किसानों, स्त्रियों, मजदूरों और शोषित वर्ग की आवाज़ बन गईं। वे ‘आदर्शवाद’ और ‘संवेदना’ के बीच मानवीय मूल्यों की खोज करते थे।

उनकी भाषा में सहजता, सरलता और प्रभावशीलता थी। वे क्लिष्ट साहित्य को आम आदमी की भाषा में लेकर आए। यही कारण है कि गाँव का किसान हो या शहर का विद्यार्थी — हर वर्ग प्रेमचंद को पढ़ और समझ सकता है।

प्रमुख रचनाएँ:

उपन्यास: गोदान: एक किसान की त्रासदी और समाज की सच्चाई का अद्भुत चित्रण। गबन: मध्यमवर्गीय समाज की महत्वाकांक्षाओं की करुण कथा। रंगभूमि: अंधे भिखारी सूरदास के माध्यम से नैतिक बल की विजय। निर्मला: दहेज और स्त्री उत्पीड़न पर गहरी चोट।

कहानियाँ: कफन: गरीबी और नैतिकता की जटिलता को उधेड़ती कहानी। पूस की रात: किसान जीवन का यथार्थ चित्रण। ईदगाह: हामिद की मासूमियत और त्याग की मार्मिक कथा। ठाकुर का कुआँ: छूआछूत और जातीय भेदभाव पर करारा प्रहार।

 

मुंशी प्रेमचंद का सामाजिक दृष्टिकोण:

  • उन्होंने लेखन को केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का औजार माना।
  • वे जातिवाद, सामंतवाद, दहेज प्रथा, नारी उत्पीड़न और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ थे।
  • उनके लेखन में गांधीवाद, स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की छाप भी दिखाई देती है।

कलम का सिपाही’ और युग प्रवर्तक

प्रेमचंद का साहित्य भारतीय समाज की आत्मा है। वे हिंदी कथा साहित्य को लोककथाओं से निकालकर यथार्थ की ज़मीन पर ले आए।      वे सिर्फ लेखक नहीं थे, आंदोलनकारी विचारक थे जिनकी कलम ने लोगों को सोचने, सवाल करने और बदलने की प्रेरणा दी।

जयंती पर श्रद्धांजलि

आज जब समाज फिर से वर्ग, भाषा, जाति और धर्म के विभाजन में उलझा है — प्रेमचंद का साहित्य और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है।

उनकी कहानियाँ आज भी हमें बताती हैं कि "सच्चा साहित्य वही है जो अंधकार में दीपक बनकर जले और समाज को रास्ता दिखाए।"

मुंशी प्रेमचंद केवल साहित्यकार नहीं, भारतीय समाज के नैतिक पथ-प्रदर्शक हैं।
उनकी कलम आज भी उतनी ही ताकतवर है जितनी सौ साल पहले थी। उनकी जयंती पर हमारा कर्तव्य है कि हम पढ़ें, समझें और उनके विचारों को अपने जीवन में उतारें।

"मुंशी प्रेमचंद अमर रहें। उनकी कलम चलती रहे — अन्याय के विरुद्ध और सच्चाई के साथ।"
वंदे मातरम्।

 

"शेर सिंह से उधम सिंह तक: जलियांवाला बाग का बदला लेने वाला योद्धा"

 


"शेर सिंह से उधम सिंह तक: जलियांवाला बाग का बदला लेने वाला योद्धा"      

— 31 जुलाई पर शहीद उधम सिंह को श्रद्धांजलि

लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

"मैंने उसे मारा है, मैंने उसे जानबूझकर मारा है... यह बदला था!"
ये शब्द थे उस भारतीय क्रांतिकारी के, जिसने 13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड का जवाब इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया। वह कोई और नहीं, बल्कि भारत माता का सपूत शहीद उधम सिंह था। 31 जुलाई 1940 को उन्होंने लंदन की पेंटनविले जेल में फांसी पाई, लेकिन उससे पहले उन्होंने वह कर दिखाया जिसे पूरे देश ने एक संतोष और सम्मान के साथ याद रखा।

बचपन: अनाथालय में पला, पर आत्मबल से भरा

26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे शेर सिंह ने बहुत कम उम्र में अपने माता-पिता को खो दिया। उनके पिता सरदार तहल सिंह एक रेलवे वाचमैन थे। मां नारायण कौर का देहांत 1901 में और पिता का 1907 में हो गया। इसके बाद वह और उनके भाई अमृतसर के अनाथालय में दाखिल हुए। एक अनाथ बालक होने के बावजूद देश के लिए जो भावना उनके भीतर थी, वह किसी राजवंशीय योद्धा से कम नहीं थी।

धर्मनिरपेक्षता की मिसाल: राम मोहम्मद सिंह आज़ाद

उधम सिंह ने जीवन में ऐसा नाम अपनाया जो पूरे भारत की आत्मा को दर्शाता है। उन्होंने खुद को राम मोहम्मद सिंह आज़ाद कहा — एक नाम जिसमें हिंदू, मुस्लिम और सिख धर्मों का प्रतीकात्मक संगम है। यह नाम उनके विचारों की ऊंचाई और भारतीय एकता के प्रति समर्पण को दर्शाता है।

प्रतिज्ञा: जलियांवाला बाग की मिट्टी से उठी क्रांति की चिंगारी

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेज अफसर जनरल डायर के आदेश पर सैकड़ों निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया गया। उधम सिंह वहाँ मौजूद थे। उन्होंने उस खून से सनी मिट्टी को अपनी मुट्ठी में लिया और प्रतिज्ञा की — "इसका बदला ज़रूर लूंगा!"

दुनिया की खाक छानी, पर नज़र सिर्फ़ लक्ष्य पर

क्रांति का संकल्प लिए उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। वे गदर पार्टी से भी जुड़े और अंग्रेजी राज के विरुद्ध धन और समर्थन जुटाया। 1927 में जब वे भारत लौटे, तो उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर 5 साल की सजा दी।

1931 में रिहा हुए तो पंजाब पुलिस की नजरों से बचते हुए कश्मीर पहुंचे और वहाँ से जर्मनी होते हुए इंग्लैंड पहुंच गए। लक्ष्य अब स्पष्ट था — जलियांवाला बाग के दोषी माइकल ओ’ डायर को सजा देना।

कैक्सटन हॉल में इंसाफ़: गोलियों में गूंजी सदी की गूंज

13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में एक कार्यक्रम चल रहा था, जहां माइकल ओ डायर भी मौजूद था। उधम सिंह अपनी जेब में एक किताब लिए पहुँचे — किताब के पन्नों में छुपी थी एक पिस्तौल। कार्यक्रम के समाप्त होते ही उन्होंने बंदूक निकाली और दो गोलियां चलाकर माइकल ओ डायर को वहीं ढेर कर दिया।

उधम सिंह भागे नहीं। वहीं रुके। गिरफ्तार हुए और ब्रिटिश अदालत में पूरी बहादुरी से बोले —
"मैंने डायर को मारा क्योंकि वह इसका हकदार था। यह बदला था मेरे देश के लिए, मेरे लोगों के लिए।"

मुकदमा, सज़ा और अमरता

उधम सिंह पर मुकदमा चला और उन्हें 4 जून 1940 को हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल, लंदन में फांसी दे दी गई। लेकिन उनकी यह 'हार' नहीं थी — यह एक क्रांतिकारी की जीत, एक युग की प्रेरणा, और एक औपनिवेशिक सत्ता की नैतिक पराजय थी।

आज का भारत उनका ऋणी है

उधम सिंह सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि वो चिंगारी हैं जो अन्याय के अंधेरे में भी जलती रही। उनके साहस ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि भारतवासी ना भूलते हैं, ना क्षमा करते हैं, जब बात स्वतंत्रता और न्याय की हो।

उनकी शहादत आज भी हर भारतीय के दिल में यह विश्वास भरती है —
"हमारा इतिहास केवल सहनशीलता का नहीं, बल्कि प्रतिशोध और न्याय का भी है।"

श्रद्धांजलि

आज, उनकी 78वीं पुण्यतिथि पर, हम सब मिलकर उन्हें नमन करें।     
शहीद उधम सिंह अमर रहें।   
वंदे मातरम्।

 

Monday, July 28, 2025

"बेवजह खुश रहिए, क्योंकि वजहें बहुत महंगी हैं"

"बेवजह खुश रहिए, क्योंकि वजहें बहुत महंगी हैं"

लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हर किसी के चेहरे पर कोई न कोई चिंता की रेखा साफ दिखाई देती है। आर्थिक बोझ, पारिवारिक जिम्मेदारियां, करियर की उलझनें – हर कोई किसी न किसी कारण से परेशान है। ऐसे में अगर हम खुश रहने के लिए किसी खास "वजह" की तलाश करते रहें, तो शायद पूरी जिंदगी गुज़र जाए और वो वजह न मिले।

लेकिन क्या खुशी की कोई कीमत होती है? क्या मुस्कुराने के लिए किसी बड़े कारण की आवश्यकता होती है? बिल्कुल नहीं। असल में, खुश रहने की सबसे बड़ी कुंजी यही है कि हम बिना वजह भी मुस्कुरा पाएं।

बच्चों को देखिए – उन्हें किसी बड़ी सफलता, बड़ी खरीदारी, या प्रशंसा की जरूरत नहीं होती। वे एक छोटी सी तितली देखकर भी हँस सकते हैं, एक कागज़ की नाव पर खुश हो सकते हैं। उनके लिए खुशी एक भावना है, जो भीतर से आती है – और यही हमें उनसे सीखना चाहिए।

बेवजह खुश रहना एक कला है – यह हमारी सोच को हल्का बनाता है, हमारे संबंधों को मधुर करता है और हमें मानसिक शांति प्रदान करता है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मुस्कुराना हमारे मस्तिष्क में हैप्पी हार्मोन्स (जैसे डोपामाइन और सेरोटोनिन) को सक्रिय करता है, जिससे तनाव कम होता है और ऊर्जा बढ़ती है।

आज के दौर में "वजहें" महंगी हैं – कभी समय नहीं है, कभी पैसा नहीं है, कभी साथ नहीं है, और कभी मन नहीं है। ऐसे में यदि हम खुश रहने की आदत डाल लें, तो ये दुनिया कुछ और ही सुंदर नज़र आने लगेगी।

तो आइए, एक संकल्प लें –
खुश रहेंगे, बिना वजह भी।
क्योंकि वजहें तो कभी मिलेंगी, कभी नहीं…
पर जिंदगी हर दिन एक अवसर है, मुस्कुराने का, जीने का।

"बेवजह खुश रहिए, वजह बहुत महंगी है – और जिंदगी बहुत खूबसूरत।" 🌼🙂

 

Saturday, July 26, 2025

"गलत व्यक्ति से मिली सही सीख – जीवन का अनमोल उपहार"

                 


"गलत व्यक्ति से मिली सही सीख – जीवन का अनमोल उपहार"

लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

हम सभी अपने जीवन में कभी न कभी ऐसे लोगों से अवश्य मिलते हैं जो हमारे लिए गलत निर्णयों, विश्वासघात या दुखद अनुभवों का कारण बनते हैं। लेकिन समय बीतने के साथ जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो पाते हैं कि वही लोग हमें सबसे सही और जरूरी सबक दे गए।

गलत व्यक्ति से मिला धोखा हमें सिखाता है कि कब और किससे भरोसा करना चाहिए। गलत संगति हमें दिखाती है कि सच्चे रिश्ते कैसे होते हैं। किसी का अहंकार, लालच या स्वार्थ हमें विनम्रता, संयम और आत्मनिर्भरता की ओर प्रेरित करता है।

जीवन की यही सुंदरता है — जहाँ गलतियां भी शिक्षकों की भूमिका निभाती हैं। ये अनुभव हमें मजबूत बनाते हैं, हमें आत्मविश्लेषण करना सिखाते हैं और हमारी सोच को गहराई प्रदान करते हैं।

यह आवश्यक नहीं कि हर शिक्षक स्कूल की कक्षा में मिले। कभी-कभी सबसे गहरी सीखें हमें उन लोगों से मिलती हैं जिन्होंने हमारे जीवन को कठिन बना दिया। ऐसे लोग जीवन रूपी पाठशाला के कठोर अध्यापक होते हैं, जो हमें ठोकर देकर चलना सिखाते हैं।

इसलिए यदि आपके जीवन में कोई "गलत व्यक्ति" आया है, तो उस अनुभव को कोसने के बजाय, उसमें छिपे पाठ को पहचानें। हो सकता है वह आपके जीवन का सबसे मूल्यवान सबक रहा हो।

गलत व्यक्ति हमेशा एक सही सबक छोड़ जाता है। वह सबक जिसे कोई किताब नहीं सिखा सकती – वह सबक जो जीवन को जीने की कला सिखाता है।

 

Thursday, July 24, 2025

कैमरे की नज़र में बचपन: सीबीएसई का निर्णय – सुधार या बोझ?

 



"कैमरे की नज़र में बचपन: सीबीएसई का निर्णय – सुधार या बोझ?"

आचार्य रमेश सचदेवा

लेखक एवं विचारक

सीबीएसई द्वारा विद्यालयों में निगरानी बढ़ाने के उद्देश्य से सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश जारी किया गया है। इस कदम का उद्देश्य है – नकल, अनुशासनहीनता या असामाजिक गतिविधियों पर अंकुश लगाना। परंतु क्या यह आदेश व्यवहारिक, आवश्यक और लाभकारी है? क्या यह बच्चों, शिक्षकों और विद्यालयों की वास्तविकताओं को समझे बिना लिया गया निर्णय है?


1. गलती को खोजने में पूरा दिन – शिक्षण कार्य का हनन     

जब किसी छात्र की गलती का "सबूत" कैमरे में ढूंढना होता है, तो अक्सर एक शिक्षक या प्रधानाचार्य को पूरा दिन रिकॉर्डिंग खंगालने में लगाना पड़ता है।      

यह केवल समय की बर्बादी नहीं, बल्कि उस दिन के अन्य शिक्षण कार्य, बैठकों और अभिभावकों से संवाद पर भी विपरीत प्रभाव डालता है।   

शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य सुधार होना चाहिए, जांच अधिकारी बनाना नहीं।


2. हर समय कैमरे चालू रखना – तकनीकी और आर्थिक रूप से असंभव 

बहुत से सरकारी व निजी स्कूलों में बिजली की कमी, खराब नेटवर्क, और उपकरणों की नियमित देखरेख की समस्या होती है।   

हर समय कैमरे चालू रहें, रिकॉर्डिंग सुरक्षित हो, और हर गतिविधि कैप्चर हो – यह केवल कागज़ों पर संभव है, व्यवहार में नहीं।    

क्या सीबीएसई ने यह सोचा कि अगर कैमरे बंद मिले तो विद्यालय को दोषी मान लिया जाएगा?


3. माता-पिता को बुलाकर वीडियो दिखाना – क्या यह व्यावहारिक है?   

सीबीएसई के आदेश के अनुसार यदि कोई घटना होती है तो स्कूल को माता-पिता को बुलाकर वीडियो दिखाना होगा।

परन्तु किसी भी वीडियो में घटना को पूर्ण रूप से स्पष्ट देख पाना मुश्किल होता है।

इसके अलावा, तकनीकी दिक्कतें, रिकॉर्डिंग की गुणवत्ता, और माता-पिता की व्याख्या अलग-अलग हो सकती है।    

यह प्रक्रिया केवल विवाद और तनाव को बढ़ाती है, समाधान को नहीं।


4. स्कूलों पर आर्थिक बोझ – कौन देगा इसका उत्तरदायित्व?    

एक कक्षा में कैमरे लगाने, डीवीआर सिस्टम, स्टोरेज, तकनीकी कर्मचारी, मेंटेनेंस – ये सभी खर्च हजारों रुपये में होते हैं। 

ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूल, कम बजट वाले निजी विद्यालय या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल इन खर्चों को कैसे वहन करेंगे?    

सीबीएसइ या सरकार ने कोई अनुदान योजना, तकनीकी सहायता या प्रशिक्षण की बात नहीं की है।


5. सुधार का विकल्प – शिक्षा में विश्वास और संवाद   

सीबीएसई बच्चों को डराकर नहीं, समझाकर सुधारें – यही शिक्षा की मूल भावना है।    

सीबीएसई विद्यालयों को चाहिए कि वे नैतिक शिक्षा, मूल्य आधारित कार्यशालाएं और अभिभावक-शिक्षक संवाद जैसे विकल्प अपनाएं। 

सीबीएसई को सलाह दी जानी चाहिए कि वह आदेशों से पहले जमीनी हकीकत और शिक्षकों की राय सुने।


सीबीएसई का कैमरा आधारित निगरानी आदेश उद्देश्य से भले ही अच्छा हो, पर उसकी व्यावहारिकता, आर्थिक भार और मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

शिक्षा का कार्य सुधारना है, सतर्कता केंद्र बनाना नहीं। कैमरे सीमित उपयोग के लिए ठीक हैं, पर उन्हें बच्चों के हर क्षण का प्रहरी बना देना दूरदर्शिता नहीं, अतिवाद है।


"जब शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चों को दिशा देना हो, तो हर कोने में शक की नज़र नहीं, विश्वास का प्रकाश होना चाहिए।"