Saturday, November 29, 2025

व्यस्तता का सच — लोग समय नहीं, खुद को खोते जा रहे हैं

 


व्यस्तता का सच — लोग समय नहीं, खुद को खोते जा रहे हैं

हम अक्सर सुनते हैं— लोग बदल गए हैं, किसी के पास समय ही नहीं।
पर क्या सचमुच समय की कमी है?
या हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहाँ व्यस्तता एक ढाल बन गई है और संवेदनाएँ बोझ समझी जाने लगी हैं?

आज का मनुष्य काम में अधिक, रिश्तों में कम दिखाई देता है।
लेकिन यह दूरी केवल सामाजिक नहीं है, यह गहरी मनोवैज्ञानिक खाई है।
लोग यूँ ही व्यस्त नहीं होते; वे इसलिए व्यस्त होते हैं क्योंकि खालीपन उनसे सवाल करता है—
और उन सवालों का सामना करना उन्हें सबसे कठिन लगता है।

दर्द का नया पता: कार्यस्थल

समाज ने सफलता को इतना महिमामंडित कर दिया है कि भावनाओं के लिए कोई जगह ही नहीं बची। लोगों ने अपनी उलझनों से बचने का सबसे आसान उपाय ढूंढ लिया है—
खुद को काम में डुबो दो।

काम उन्हें वह शोर देता है जिसमें उनकी अंदरूनी आवाज़ें दब जाती हैं। घर की खामोशी, रिश्तों की दरारें और मन की बेचैनियाँ उन्हें काम के घंटों में कम महसूस होती हैं, इसलिए वे काम को समय नहीं, अपना आश्रय मान बैठे हैं।

मुस्कुराहटों के पीछे की थकावट

सबसे विडंबना यह है कि ऐसे लोग ज़्यादा हंसते हैं, ज़्यादा सामाजिक दिखते हैं, अधिक सक्रिय रहते हैं— क्योंकि वे टूटने का अंदेशा किसी को नहीं देना चाहते।

समाज में ‘मजबूत’ दिखने की मजबूरी ने लाखों लोगों को अपनी भावनाएँ भीतर ही भीतर दफन करने के लिए मजबूर किया है। मुस्कुराहट अब दिल हल्का करने का तरीका नहीं, दर्द छुपाने की तकनीक बन चुकी है।

व्यस्तता: समाधान नहीं, मन का भागना

यह मानने का समय आ गया है कि काम में डूब जाना किसी भी मानसिक पीड़ा का वास्तविक उपचार नहीं। यह केवल दर्द को स्थगित करता है। जो लोग लगातार खुद को थका रहे हैं, वह अपने भीतर एक अनकहा तनाव जमा कर रहे हैं जो किसी दिन अवसाद, अनिद्रा या भावनात्मक टूटन के रूप में फट पड़ता है।

व्यस्तता एक आदत बन जाती है, और धीरे-धीरे यह आदत मनुष्य को उसकी संवेदनाओं, उसके रिश्तों,
यहाँ तक कि स्वयं से भी दूर कर देती है।

समस्या का समाधान: आत्म-संवाद और स्वीकार्यता

सच्ची मजबूती यह नहीं कि इंसान कभी टूटे नहीं; सच्ची मजबूती यह है कि वह अपने टूटन को पहचाने, उसे स्वीकार करे, और उसे भरने का साहस जुटाए।

हमें एक ऐसे समाज की आवश्यकता है— जहाँ लोग अपनी भावनाओं के लिए माफी न माँगें,
जहाँ व्यस्तता गौरव का प्रतीक नहीं, संतुलन सम्मान का प्रतीक बने,
और जहाँ मानसिक स्वास्थ्य पर बातचीत कमज़ोरी नहीं, परिपक्वता मानी जाए।

आइए लोगों को व्यस्तता से नहीं, संवेदना से समझें

अगली बार यदि कोई कहे— मुझे समय नहीं मिला…तो इसे केवल एक बहाना न समझें।
शायद वह अपनी किसी अदृश्य लड़ाई में उलझा हो। शायद वह आपको नहीं, खुद को खो रहा हो।

हमारा समाज तभी स्वस्थ होगा
जब हम यह समझेंगे कि मनुष्य मशीन नहीं है— उसकी व्यस्तता हमेशा काम का बोझ नहीं,
कभी-कभी दर्द की चुप्पी भी होती है।

 

1 comment:

Amit Behal said...

इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में भौतिकतावाद के पीछे इंसान भी खो गया है और इंसानियत भी...