किताबों के साथ-साथ, लोगों को भी पढ़िए
— आचार्य रमेश सचदेवा (शिक्षाविद, विचारक)
हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम जानकारी के महासागर में रहते हुए भी समझ के स्तर पर सूखे पड़े हैं। ज्ञान के स्रोत बढ़े हैं, पर अनुभव की परख घटती जा रही है। किताबें पहले से अधिक उपलब्ध हैं, पर उन्हें पढ़ने का धैर्य नहीं; और लोग पहले से अधिक दिखते हैं, पर उन्हें समझने की क्षमता नहीं। ऐसे में यह वाक्य पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाता है— “किताबों के साथ-साथ, लोगों को भी पढ़िए।”
किताबें हमारे बौद्धिक विकास का आधार हैं। वे इतिहास का बोध कराती हैं, विज्ञान की जटिलता समझाती हैं और दुनिया के विविध विचारों से परिचित कराती हैं। किताबें सभ्यता को दिशा देती हैं। परंतु यदि मनुष्य केवल किताबों से ज्ञान ग्रहण कर ले, और लोगों को पढ़ने की कला न सीखे, तो उसका ज्ञान अधूरा रह जाता है। सिद्धांतों की दुनिया और वास्तविक जीवन के अनुभवों में जो पुल है, वह केवल "लोगों" से गुजरकर ही बनता है।
लोगों को पढ़ना एक कला है—और यह कला धीरे-धीरे सीख में बदलकर परख बनती है। कोई व्यक्ति अपने व्यवहार से विश्वास सिखा जाता है, कोई अपनी चतुराई से सावधानी; कोई संघर्षों से साहस देता है तो कोई अपनी गलतियों से हमें दिशा दिखा जाता है। हर व्यक्ति एक खुली किताब है—बस पन्ने पढ़ने की दृष्टि चाहिए।
किताबें ज्ञान दे सकती हैं, पर वे जीवन के उतार-चढ़ाव नहीं जी सकतीं। किताबें नियम बता सकती हैं, पर वे परिस्थितियों के दबाव को नहीं समझातीं। किताबें आदर्श दिखाती हैं, लेकिन लोगों के अनुभव बताते हैं कि आदर्शों से समझौता कब आवश्यक है और कब नहीं। यही कारण है कि सिर्फ किताबें पढ़ने वाले लोग कई बार "जानकार" तो होते हैं, पर "परिपक्व" नहीं।
किसी व्यक्ति की मुस्कान, उसकी आवाज़, उसके बोलने का ढंग, उसकी चुप्पी—ये सब वे पंक्तियाँ हैं जो किसी भी किताब में नहीं मिलतीं। जीवन की कई सबसे महत्वपूर्ण सीखें उन लोगों से मिलती हैं जो हमारे आस-पास रहते हैं। कभी माता-पिता की सरल बातों में, कभी किसी शिक्षक की डाँट में, कभी किसी साधारण व्यक्ति के संघर्ष में, तो कभी किसी संबंध के टूटने में। ये जीवन की वे अनलिखी पुस्तकें हैं जिन्हें पढ़ने वाला व्यक्ति कभी भ्रमित नहीं होता।
और यह भी सच है कि लोगों को पढ़ना हमें स्वयं को समझने की दिशा भी देता है। हम कौन हैं?
हम कहाँ गलत पड़ते हैं? किस बात पर टूट जाते हैं और किस बात पर खिल उठते हैं? इसका उत्तर अक्सर हमें हमारे ही आसपास के लोग दे जाते हैं—अनजाने में, अनकहे में।
आज जब सामाजिक संबंध औपचारिकता में बदलते जा रहे हैं और बातचीत का स्थान स्क्रीन ने ले लिया है, लोगों को पढ़ने की संवेदना और भी आवश्यक हो गई है। किताबें हमें दुनिया से जोड़ती हैं, पर लोग हमें जीवन से जोड़ते हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम ज्ञान और अनुभव—दोनों से बने संतुलित मनुष्य बनें।
अंततः यह समझना होगा कि किताबें बुद्धि को तेज़ करती हैं, लेकिन लोग बुद्धि को दिशा देते हैं। किताबें आपको ऊँचा उठा सकती हैं, पर लोग आपको संभालना सिखाते हैं।
जीवन की परिपक्वता इन दोनों के सार से ही जन्म लेती है। इसीलिए—
किताबें पढ़िए, पर लोगों को पढ़ना न भूलिए।
.jpg)
1 comment:
इसी को समाजीकरण कहते है. इंसान समाज से अधिकम सीखता है. सच बात तो ये है व्यवहारिक ज्ञान संगी-साथियों-और अग्रजों से मिलता है. अच्छा लेख
Post a Comment