Saturday, December 20, 2025

गाना आए या न आए, गाना चाहिए

 


गाना आए या न आए, गाना चाहिए


हमारे समाज में एक अजीब-सा दबाव चुपचाप पनप गया है—

कि जो दिखे, वही बिके।

जो शोर करे, वही सुना जाए।

और जो मंच पर आ जाए, उसे हर हाल में “परफ़ॉर्म” करना ही चाहिए।

यही सोच आज के दौर का नया मंत्र बन गई है—

गाना आए या न आए, गाना चाहिए।

यह पंक्ति केवल संगीत तक सीमित नहीं है।

यह आज की जीवन-शैली, शिक्षा, राजनीति, सोशल मीडिया और यहां तक कि रिश्तों पर भी सटीक बैठती है।

आज सवाल यह नहीं रहा कि आता है या नहीं,

सवाल यह हो गया है कि दिख रहा है या नहीं।

सोशल मीडिया के मंच पर हर कोई कलाकार है।

कोई लिखना नहीं जानता, फिर भी लेखक है।

कोई बोलना नहीं जानता, फिर भी वक्ता है।

कोई सुनना नहीं जानता, फिर भी गुरु है।

भीड़ ताली चाहती है,

और व्यक्ति ताली के लिए स्वयं को ही खो बैठता है।

दुखद यह है कि इस शोर में

वह स्वर दब जाता है जो सच में साधना से निकला होता है।

जो अभ्यास से आया होता है।

जो चुपचाप भीतर पकता है।

आज बच्चे को यह नहीं सिखाया जाता कि

पहले सुर साधो,

पहले शब्द समझो,

पहले विचार को परिपक्व करो।

उसे यह सिखाया जाता है—

“स्टेज पर चढ़ो, बोलो, दिखो, वायरल हो जाओ।”

पर क्या हर आवाज़ गाना होती है?

और क्या हर मंच योग्यता का प्रमाण है?

समाज को यह समझना होगा कि

हर किसी का गाना अलग होता है।

कुछ का स्वर मंच पर खिलता है,

तो कुछ का मौन ही सबसे सुंदर गीत होता है।

यदि हम हर व्यक्ति से ज़बरदस्ती गाना गवाएंगे,

तो न सुर बचेगा,

न संवेदना,

न सच्चाई।

हमें फिर से उस समय की ओर लौटना होगा

जहाँ पहले सीख थी,

फिर प्रस्तुति।

जहाँ पहले तैयारी थी,

फिर तालियाँ।

वरना एक दिन ऐसा आएगा कि

सब गा रहे होंगे,

पर सुनने वाला कोई नहीं होगा।

और तब यह पंक्ति केवल व्यंग्य नहीं,

हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी बन जाएगी—

गाना आए या न आए, गाना चाहिए।

आचार्य रमेश सचदेवा

(शिक्षाविद एवं विचारक)

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