मिलजुल कर रहना और साथ बैठकर भोजन करना—तनाव-मुक्त जीवन, स्वास्थ्य और सफलता का मूलमंत्र
द्वारा : आचार्य रमेश सचदेवा (शिक्षाविद, विचारक)
आज की तेज़ रफ्तार और अकेलेपन से भरी दुनिया में एक पुरानी, सरल-सी आदत तेजी से गायब होती जा रही है—
मिलजुल कर रहना और साथ बैठकर भोजन करना।
यह परंपरा सिर्फ एक सामाजिक व्यवहार नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन, शारीरिक स्वास्थ्य और पारिवारिक सौहार्द का आधार रही है। आश्चर्य की बात है कि जिस आदत ने हमारी पीढ़ियों को स्वस्थ, खुशहाल और जुड़ा हुआ रखा, उसी से हम सबसे अधिक दूर होते जा रहे हैं।
सबसे पहले बात तनाव की।
मानव मन अकेलेपन को सबसे अधिक बोझ की तरह ढोता है। लेकिन जब हम साथ बैठकर खाते हैं, बातें करते हैं, अपनी दिनभर की छोटी-बड़ी बातें साझा करते हैं, तो भीतर जमा हुआ तनाव अनायास ही पिघलने लगता है। भोजन सिर्फ पोषण नहीं देता, भावनात्मक रिलीज भी देता है—और यही कारण है कि संयुक्त परिवारों में मानसिक तनाव अपेक्षाकृत कम पाया जाता था। आज मनोवैज्ञानिक पुनः यही बात दोहरा रहे हैं कि साझा भोजन मानसिक स्वास्थ्य की थेरेपी बन सकता है।
दूसरा पहलू है स्वास्थ्य।
भोजन का माहौल हमारे खाने के तरीके को बदल देता है। परिवार के साथ बैठकर खाने वाला व्यक्ति न तो जल्दी-जल्दी खाता है और न ही अनियंत्रित स्नैक्स का शिकार होता है। ऐसे भोजन में प्यार, अनुशासन और संतुलन—तीनों जुड़े होते हैं। यही कारण है कि शोध बताते हैं कि परिवार के साथ भोजन करने वाले बच्चों में मोटापा कम होता है, और बड़े भी बेहतर जीवनशैली अपनाते हैं।
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू है सफलता।
शायद यह बात सुनकर कुछ लोग चौंकें, पर यह सत्य है कि सफलता का बीज घर की भोजन-सभा में ही बोया जाता है।
क्योंकि वहीं संवाद विकसित होता है, वहीं मूल्य गढ़े जाते हैं, वहीं सुनने-समझने की कला बनती है और वहीं टीमवर्क की शुरुआत होती है।
जो परिवार साथ बैठकर खाते हैं, उनमें रिश्ते मजबूत रहते हैं, और जहां रिश्ते मजबूत हों, वहां आत्मविश्वास, संबल और निर्णय शक्ति स्वतः बढ़ती है। यही तीनों गुण जीवन और करियर—दोनों की सफलता का आधार बनते हैं।
लेकिन आज स्थिति इसके विपरीत है।
व्यस्त दिनचर्या, मोबाइल की गिरफ्त, और “अपनी-अपनी प्लेट” वाली संस्कृति ने घरों को डाइनिंग-टेबल से दूर कर दिया है।
परिवार एक ही छत के नीचे रहता है, पर जीता अलग-अलग है।
बच्चों की समस्याएं अनदेखी रह जाती हैं, बुजुर्गों की बातें अनसुनी, और घर का माहौल केवल “साथ रहने” तक सिमट कर रह जाता है, “साथ जुड़ने” तक नहीं पहुँच पाता।
अब समय है इस आदत को पुनः अपनाने का।
यह बहुत बड़ा सामाजिक सुधार नहीं,
केवल एक निर्णय है—
कि हम दिन में एक बार, चाहे कितना भी व्यस्त हों, परिवार के साथ बैठकर भोजन करेंगे।
यही छोटा-सा संकल्प तनाव-मुक्त मन, स्वस्थ शरीर और सफल जीवन की ओर पहला कदम बन सकता है।
दरअसल, मिलजुल कर रहना और साथ बैठकर खाना कोई पुरानी परंपरा नहीं,
आधुनिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
और जिस दिन समाज इसे समझ लेगा, उस दिन हम मानसिक स्वास्थ्य संकट, पारिवारिक विघटन और अनावश्यक प्रतिस्पर्धा से काफी हद तक मुक्त हो जाएंगे।
एक ही संदेश के साथ मैं इस विषय को समाप्त करना चाहूँगा—
साथ रहना सिर्फ घर बनाता है,
साथ खाना—रिश्तों को जीवन देता है।


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