कम से कम उसे तो छोड़ दिया जाए जो मानवीय अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है
(अरावली पर्वतमाला
पर विस्तृत विचारणीय लेख)
द्वारा आचार्य रमेश सचदेवा (शिक्षाविद एवं विचारक)
अरावली पर्वतमाला भारत की सबसे प्राचीन
प्राकृतिक धरोहरों में से एक है। करोड़ों वर्ष पुरानी यह पर्वतमाला केवल भौगोलिक
संरचना नहीं, बल्कि उत्तर भारत के जीवन-तंत्र की रीढ़ है। इसके बावजूद आज अरावली सबसे अधिक
उपेक्षित और शोषित प्राकृतिक संपदा बन चुकी है। प्रश्न यह नहीं है कि खनन से कितना
लाभ हो रहा है, प्रश्न यह है कि इस लाभ की कीमत कौन चुका रहा है—और कब तक?
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अरावली पर्वतमाला को
लेकर दिए गए निर्णय को अंतिम या अपरिवर्तनीय नहीं माना जा सकता, क्योंकि न्यायालय स्वयं अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करता
रहा है। केवल 100 मीटर ऊँचाई के
आधार पर अरावली की पहचान करना तर्कसंगत नहीं है—100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ भी लावारिस नहीं हो सकतीं। सम्पूर्ण अरावली
पर्वतमाला को सुरक्षित और संरक्षित किया जाना चाहिए।
अरावली लगभग 692 किलोमीटर लंबी, करोड़ों वर्ष
पुरानी प्राकृतिक धरोहर है, जो दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और
गुजरात के पर्यावरण संतुलन की रीढ़ है। यदि इसका विनाश जारी रहा तो दिल्ली-एनसीआर
सहित मैदानी क्षेत्रों में भीषण गर्मी,
मरुस्थलीकरण और प्रदूषण खतरनाक स्तर तक बढ़ जाएगा। पीएम-10, पीएम-2.5 जैसे प्रदूषक
स्थायी रूप से वायु गुणवत्ता को “गंभीर” श्रेणी में ले जाएंगे।
हरियाणा के भिवानी ज़िले के तोशाम विधानसभा
क्षेत्र के एक छोटे-से गाँव का दृश्य सामने आया है। वहाँ हर 100 कदम पर 300 क्रशर मशीनें
पहाड़ियों को खोद रही हैं। 120 से अधिक खनन
साइट्स हैं, जहाँ हर समय 300 से अधिक डंपर मौजूद रहते हैं। गाँव में लगभग 1200 घर हैं और अधिकांश घरों की दीवारों में दरारें पड़ चुकी हैं
या प्लास्टर झड़ चुका है।
क्या खनन की इजाज़त इसलिए दी जा रही है कि
पहाड़ियों से बेशकीमती खनिज निकलते हैं और माफिया अमीर होता चला जाए? अरावली पर्वतमाला के प्रत्येक हेक्टेयर में लगभग 20 लाख लीटर भू-जल पुनर्भरण की क्षमता है। सोचिए, जब पानी ही नहीं होगा तो खेती कैसे होगी और पीने के लिए
पानी कहाँ से आएगा?
अरावली को काटने-छाँटने से एक दिन ऐसा आएगा कि
बनास, लूणी, साहिबी जैसी नदियाँ सूख जाएँगी। तेंदुआ, भेड़िया, सियार जैसे
जंगली जानवर और अनेक वनस्पतियाँ भी विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाएँगी।
अरावली केवल एक पर्वतमाला नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की रक्षा कवच है। इसलिए इसके संरक्षण
के लिए सभी राज्यों में व्यापक और सशक्त जन-आंदोलन अनिवार्य है।
अरावली पर्वतमाला थार मरुस्थल और उत्तर भारत के
उपजाऊ मैदानों के बीच एक प्राकृतिक दीवार का कार्य करती है। यह रेतीली हवाओं को
रोकती है, मानसून को दिशा देती है और वर्षा को संभव बनाती है। इसके प्रत्येक हिस्से में
भू-जल पुनर्भरण की अद्भुत क्षमता है। जिस दिन यह क्षमता समाप्त हो गई, उस दिन पानी,
खेती और
जीवन—तीनों संकट में पड़ जाएंगे।
आज अरावली में हो रहा अनियंत्रित खनन केवल
पहाड़ों को नहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को तोड़ रहा है। पहाड़ियों
के कटते ही तापमान बढ़ रहा है, वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच रहा है और जलस्रोत सूखते
जा रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और राजस्थान पहले ही भीषण गर्मी और प्रदूषण की मार
झेल रहे हैं। अरावली का क्षरण इस संकट को कई गुना बढ़ा देगा।
यह विडंबना ही है कि विकास की परिभाषा को केवल
कंक्रीट, सड़क और खनिज तक सीमित कर दिया गया है। वास्तविक विकास वह है, जो प्रकृति और
मानव—दोनों के अस्तित्व को सुरक्षित रखे। यदि विकास के नाम पर जीवन-रक्षक पहाड़ों
को ही समाप्त कर दिया गया, तो यह प्रगति नहीं, आत्मघाती भूल होगी।
अरावली केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक
और नैतिक प्रश्न भी है। यह आने वाली पीढ़ियों के अधिकारों से जुड़ा हुआ है। क्या
हमें यह अधिकार है कि हम अपने तात्कालिक लाभ के लिए उनके भविष्य को बंधक बना दें?
क्या खनिज
माफिया का मुनाफा करोड़ों लोगों के जीवन से अधिक मूल्यवान है?
आज आवश्यकता है कि सरकार, न्यायपालिका और समाज—तीनों
मिलकर अरावली के संरक्षण के लिए कठोर और ईमानदार कदम उठाएँ। कानून केवल काग़ज़ों
में नहीं, ज़मीन पर लागू होने चाहिए। साथ ही जन-जागरूकता और जन-आंदोलन भी आवश्यक हैं,
ताकि यह संदेश
स्पष्ट हो जाए कि प्रकृति के साथ समझौता नहीं किया जा सकता।
अंततः यही कहना होगा कि विकास की दौड़ में यदि
कुछ छोड़ना ही पड़े, तो विलास छोड़िए, लालच छोड़िए—
कम से कम उसे
तो छोड़ दिया जाए जो मानवीय अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
अरावली को
बचाना केवल पहाड़ों को बचाना नहीं, बल्कि जीवन को बचाना है।
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