विद्यालय भेजने से पहले बच्चों की ‘मानसिक प्रोग्रामिंग’
क्यों ज़रूरी है?
✍️ आचार्य रमेश सचदेवा “शिक्षाविद एवं पेरन्टींग कोच”
जब कोई बच्चा विद्यालय की ओर अपने नन्हे कदम बढ़ाता है, तो वह केवल पठन-पाठन की ओर
नहीं बढ़ता — वह जीवन की सामाजिक, नैतिक और व्यवहारिक शिक्षा की ओर अग्रसर होता है। इसलिए यह
आवश्यक है कि हम बच्चे को विद्यालय भेजने से पहले उसकी भीतर की
प्रवृत्तियों का निर्माण करें, न कि केवल बैग और बोतल भरें।
"बच्चों की 'प्रोग्रामिंग' – यानी सोचने और समझने का
ढंग"
तीन मुख्य 'जीवन मूल्यों' की स्थापना अनिवार्य है –
विद्यालय से पहले:
1. Self Study (स्वाध्याय)
- बच्चे को
घर पर थोड़ा-बहुत स्वयं पढ़ने की आदत डाली जाए — बिना डाँट या मोबाइल के।
- पढ़ने के
प्रति रुचि जगाना, रट्टा नहीं लगवाना, यही
आरंभिक प्रोग्रामिंग है।
- उसे
समझाएं कि अध्यापक
सिखाएंगे, पर सीखना उसका उत्तरदायित्व है.
2. Respect for Teachers (शिक्षकों का सम्मान)
- माता-पिता
स्वयं भी शिक्षकों के लिए सकारात्मक भाषा प्रयोग करें।
- बच्चे को
समझाएं कि शिक्षक केवल विषय नहीं सिखाते, वे जीवन
का दृष्टिकोण देते हैं।
- शिक्षक की
डाँट को अपमान नहीं, सुधार समझना सिखाएं।
3. Respect for Classmates (सहपाठियों का आदर)
- बच्चे को
यह सिखाएं कि हर बच्चा अलग है, कोई तेज़, कोई शांत,
कोई कमजोर – पर सभी सम्मान
योग्य हैं।
- “मैं अच्छा
हूँ” के साथ “दूसरे भी अच्छे हैं” — यह भाव अगर आ गया, तो
विद्यालय परिवार बन जाएगा।
क्या न सिखाएं?
- कि
"अगर कुछ भी हो, तो शिकायत करो।"
- कि
"अगर टीचर समझ न आए, तो बोल दो कि टीचर ही गलत है।"
- कि
"तू अकेला सबसे सही है।"
इस तरह की नकारात्मक प्रोग्रामिंग बच्चे को विद्रोही बनाती
है, आलोचक नहीं बल्कि समस्या का हिस्सा।
विद्यालय शिक्षित करता है, पर संस्कार परिवार से आते
हैं।
बच्चे का शिक्षक से रिश्ता केवल तब गहराता है जब घर से वह सम्मान, स्वाध्याय और समभाव की भाषा सीखकर
आता है। वर्ना शिक्षक पाठ पढ़ाते रहते हैं और बच्चा केवल “ये तो आता ही नहीं” और “ये तो डाँटते
हैं” जैसी धारणाओं में उलझा रह जाता है।
पालकों से एक निवेदन:
याद रखें:
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