“शिक्षक चला जा रहा है” – एक खामोश विद्रोह की पुकार
आज की शिक्षा प्रणाली में शिक्षक केवल कक्षा तक
सीमित नहीं हैं, बल्कि वे एक ऐसे प्रशासनिक और
औपचारिक जाल में फँस चुके हैं, जहाँ उनकी सर्जनात्मकता,
संवेदनशीलता और
आत्मसम्मान लगातार क्षीण हो रहा है। वे "कक्षा के राजा" से
"सिस्टम के क्लर्क" में बदल दिए गए हैं। यही कारण है कि अब शिक्षक
"छोड़ कर जा रहे हैं" — न केवल नौकरी, बल्कि उस मिशन को जिसे
उन्होंने कभी आत्मा से अपनाया था।
शिक्षक क्यों जा रहा है?
एक समय था जब शिक्षण को एक सेवा, एक साधना माना
जाता था। लेकिन आज:
- शिक्षकों को हर
गतिविधि की फोटो अपलोड करनी होती
है।
- उन्हें इवेंट
मैनेजर बना दिया गया है, जिन्हें
हर छोटे-बड़े आयोजन का दस्तावेज़ बनाकर "प्रमाण" देना पड़ता है।
- विद्यालयों में सीखने की
बजाय दिखाने की होड़ है।
यह सब सिर्फ़ इसलिए कि प्रशासन और दाता संस्थाएँ
यह देख सकें कि "कुछ हो रहा है", चाहे बच्चों के जीवन में
कुछ बदले या नहीं।
शिक्षा नहीं, प्रशासन हावी
सरकारी विद्यालयों में विशेष रूप से शिक्षक अपने
को एक बेबस कर्मी के रूप में अनुभव कर रहे
हैं।
उन पर विश्वास
नहीं किया जा रहा, बल्कि हर कार्य के लिए प्रमाण मांगा जा रहा है। यह विश्वास का नहीं, निगरानी का युग बन गया है। “शिक्षण अब प्रेरणा नहीं, एक पेशेवर बोझ बन गया है।”
क्या इसका असर बच्चों पर
नहीं पड़ता?
बिलकुल पड़ता है।
- बच्चे अब कठिन
सूचनाओं और गतिविधियों के बोझ से दबे
हुए हैं।
- परीक्षण, सर्वेक्षण, फीडबैक और
प्रदर्शन की अंधी दौड़ में उनकी रचनात्मकता गुम हो
रही है।
- डिजिटल उपकरणों के ज़रिए हो रहा "अत्यधिक
मूल्यांकन" उन्हें भावनात्मक
रूप से असुरक्षित बना रहा
है।
शिक्षक की पीड़ा: कोई नहीं
सुनता
एक वरिष्ठ शिक्षिका ने नौकरी इसलिए छोड़ी
क्योंकि उनसे अपेक्षित काम अब बहुत बोझिल और व्याकुलता
उत्पन्न करने वाला हो गया था। उन्होंने कहा कि केन्द्रीय
विद्यालयों में शिक्षकों को अब फोटो अपलोड, रिपोर्ट बनाना,
अनुपालन साबित
करना जैसे कार्यों के लिए बाध्य किया जा रहा है — जो कभी उनके
शिक्षण के जुनून का हिस्सा नहीं था।
समाधान की ओर दृष्टि
यदि शिक्षक चले गए, तो कौन रह जाएगा जो
पीढ़ियों को दिशा देगा?
हमें चाहिए कि:
- शिक्षकों को कार्य की स्वतंत्रता मिले।
- प्रेरणा और संवेदनशीलता आधारित कार्य वातावरण बने।
- प्रशासनिक बोझ को न्यूनतम किया जाए।
- शिक्षक को केवल प्रदर्शन नहीं, समझ और
संवेदना से आँका जाए।
शिक्षक छात्रों को नहीं छोड़ रहा है, वह उस व्यवस्था को छोड़ रहा है जो उसे आदर्श नहीं, केवल अनुशासन और प्रदर्शन का माध्यम बना रही है।
अब समय है कि हम शिक्षा को
दिखावे से हटाकर अनुभव, और शिक्षक को बायोमेट्रिक से
हटाकर विश्वास की ओर लौटाएँ। शिक्षक चला गया तो किताबें होंगी, छतें होंगी, बच्चे होंगे… लेकिन ज्ञान का दीपक
बुझ जाएगा।

6 comments:
एक अध्यापक की व्यथा का बिल्कुल सही व्याख्यान,,,इसके लिए साधुवाद आपको भाई जान💐🙏
मैं यह मानता हूं कि आज का शिक्षक व्यवस्था के चलते कुछ निराश है, क्यूंकि व्यवस्था बेहद बिगड़ चुकी है।परिवर्तन संसार का नियम है, यह व्यवस्था भी परिवर्तित होगी। शिक्षकों का यूं छोड़कर चले जाना कोई विकल्प नहीं।
गुरु के बिना ज्ञान संभव नहीं।
ज्ञान की ये ज्योति सदा जलती रहे।
सुदेश कुमार आर्य, वरिष्ठ पत्रकार एवं अध्यक्ष
आर्य समाज मंडी डबवाली।
शिक्षकों की यह समस्या नई नहीं है. शिक्षकों सदा दूसरे कार्यों में प्रयोग होता रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में डाक सेवा तक वे सँभालते रहे हैं.
हाँ, ये है गलत. मगर किसी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. और तो और शिक्षक-संघठन भी इस अत्याचार को सहन करते आये हैं.
हमने इस व्यवस्था का सदा विरोध किया मगर साथ किसी ने नहीं दिया.
Thanks a lot brother.
Thanks a lot
Thanks a lot bhai sahib.
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