✍️ आचार्य रमेश सचदेवा
कभी दीपावली अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का
प्रतीक थी। यह पर्व था — आत्मा के भीतर के अंधकार को मिटाने का, अपने भीतर की
ईर्ष्या, लोभ, और द्वेष को जलाकर राख करने का। पर आज वही दीपावली उपहारों की होड़, ब्रांडेड
मिठाइयों की प्रदर्शनी और सोशल मीडिया के ‘फोटो फेस्टिवल’ में बदल चुकी है।
आज दीप नहीं जलते, बल्कि
डीलें जलती हैं। लक्ष्मी पूजन नहीं होता, बल्कि लक्ज़री पूजन होता है। भक्ति नहीं, बल्कि बाज़ार बोलता है।
गरीब अब भी लक्ष्मी का इंतज़ार करता है — उसके घर के आँगन में अंधेरा जस का तस है। उसके लिए दीपावली का मतलब है — एक दिन पेट भर
खाना, और शायद किसी अमीर की दया से मिले अधूरी मुस्कान।
हम सोचते हैं कि पटाखे न चलाने से भारत
प्रदूषणमुक्त हो जाएगा, पर क्या यह पर्यावरण केवल हवा का नाम है? हमारे मन का
प्रदूषण, हमारी सोच की सड़ांध, हमारी संवेदनाओं की राख — क्या उसे भी
कोई सफाई अभियान छू पाएगा?
हमने दीपावली को त्यौहार नहीं, त्याग का बहाना बना दिया है — त्याग नहीं
अच्छाई का, बल्कि विवेक का।
हर घर में
‘क्या नया खरीदा?’ का सवाल है, पर ‘किसे नया जीवन दिया?’ यह सवाल कोई नहीं पूछता।
सच तो यह है — हम दीप जलाने के बजाय दिल बुझा रहे हैं, हम पटाखे
छोड़ने के बजाय अपने संस्कार छोड़ रहे हैं। हमने ‘दीपावली मनाना’ छोड़कर केवल ‘दिखाना’ सीख लिया है।
यदि इस त्यौहार की आत्मा को सच में समझना है, तो जरूरत है एक दीप मानवता का जलाने की
—
जो गरीब के घर
में रौशनी करे, जो किसान के माथे की लकीर मिटाए, जो श्रमिक के बच्चे को
मुस्कुराने की वजह दे।
वह दीप ही असली दीपावली का दीप होगा — जो उपहारों से
नहीं, उपकारों से जलेगा।

4 comments:
त्योहार अब औपचारिकता भर होते जा रहे हैं l
त्योहारों की गरिमा सच में दांव पर है...
बिल्कुल जी
घातक स्थिति है
Post a Comment