80 करोड़ मुफ्त राशन वालों का भविष्य
✍️ आचार्य रमेश सचदेवा
(सामाजिक विचारक एवं शिक्षाविद)
भारत आज एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जहां एक ओर
सामाजिक संवेदना है, तो दूसरी ओर आर्थिक विवशता। सरकार की प्रधानमंत्री
गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत देश के लगभग 80 करोड़ नागरिकों को मुफ्त राशन
मिल रहा है। यह संख्या लगभग देश की कुल आबादी के आधे हिस्से के बराबर है। ऐसे में
यह सवाल अनिवार्य हो जाता है — क्या यह नीति देश को सशक्त बना रही है,
या धीरे-धीरे निर्भरता का जाल बुन रही है?
योजना का उद्देश्य और
वास्तविकता
जब यह योजना शुरू हुई थी, तब देश महामारी की चपेट में
था। लाखों लोग रोज़गार खो चुके थे, कारखाने बंद थे, और गांव लौटे प्रवासी श्रमिक भूख से जूझ रहे थे।
उस समय यह योजना जीवनदायिनी साबित हुई —
जिसने करोड़ों परिवारों को भूख से बचाया। परंतु अब जब महामारी का दौर पीछे छूट
चुका है, तो यही योजना स्थायी मानसिक निर्भरता का रूप लेने
लगी है। कई ग्रामीण और शहरी परिवार अब मेहनत की बजाय सरकारी राशन पर भरोसा करने
लगे हैं। यह स्थिति सहानुभूति से नीति तक के सफर में एक
गंभीर मोड़ बन चुकी है।
बढ़ते तापमान, घटती फसलें और
बदलता मौसम
जलवायु परिवर्तन अब केवल वैज्ञानिकों की चर्चा
का विषय नहीं रहा, बल्कि यह किसान की रसोई तक पहुंच चुका है। अत्यधिक तापमान,
अनियमित वर्षा
और लंबा सूखा — ये तीनों कारक भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए गहरी चुनौती बन गए
हैं।
- असहनीय गर्मी से गेहूं और धान की पैदावार घट रही है।
- सूखे से जलस्रोत सूख रहे हैं, सिंचाई ठप
हो रही है।
- मिट्टी की नमी और उर्वरता लगातार घट रही है।
- वहीं कुछ क्षेत्रों में इतनी अधिक वर्षा हो रही है कि फसलें बाढ़ में बह जाती हैं।
कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि भारत में अब “संतुलित ऋतु” की जगह “चरम ऋतु” आ चुकी है —
या तो सूखा है,
या बाढ़। दोनों
ही स्थितियों में किसान की मेहनत और सरकार की नीतियां असंतुलित हो रही हैं। बिहार,
असम और उत्तर
प्रदेश जैसे राज्य बाढ़ की त्रासदी से हर साल
जूझते हैं, तो महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान सूखे की मार झेलते हैं। इन दोनों परिस्थितियों का सीधा असर अनाज उत्पादन पर पड़ता है — और
परिणामस्वरूप सरकारी गोदामों का भार बढ़ता जाता है।
अर्थव्यवस्था पर असहनीय बोझ
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मुफ्त राशन
योजना पर हर साल 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च हो रहे हैं। इतनी राशि से शिक्षा, स्वास्थ्य, जल संरक्षण और
ग्रामीण उद्योग जैसी परियोजनाएं चलाई जा सकती हैं। मुफ्त अनाज से तात्कालिक राहत
तो मिलती है, पर दीर्घकाल में यह उत्पादन की बजाय उपभोग पर
केंद्रित समाज बनाती है। यह भी विडंबना है कि जिस देश ने चंद्रयान
जैसे अभियानों से विज्ञान की ऊँचाइयाँ छुई हैं, वहीं आधी आबादी अब भी
मुफ्त अनाज की पंक्ति में खड़ी है। यह विरोधाभास केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय मानसिकता के ठहराव का संकेत है।
समाधान की राह: अनाज नहीं,
अवसर दीजिए
मुफ्त राशन का विकल्प रोज़गार और
कौशल आधारित विकास ही हो सकता है।
- हर लाभार्थी परिवार से एक सदस्य को कौशल प्रशिक्षण से जोड़ा
जाए।
- ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक
खेती, पानी बचाओ मिशन और सौर ऊर्जा आधारित उद्योग को
प्रोत्साहन मिले।
- सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल
पुनर्भरण योजनाएं शुरू हों, जबकि
बाढ़ प्रभावित इलाकों में स्मार्ट
जल निकासी प्रणाली और भंडारण संरचनाएं बनें।
- राशन की बजाय रोज़गार
आधारित प्रोत्साहन कार्ड लागू किए
जाएं — जहां काम करने पर ही लाभ मिले।
यदि हम आज इन सुधारों की शुरुआत नहीं करेंगे, तो आने वाले
वर्षों में मुफ्त राशन देने की मजबूरी, भूख से जूझने
की त्रासदी में बदल सकती है।
आत्मनिर्भर भारत की असली
परिभाषा
“आत्मनिर्भर भारत” का अर्थ केवल उत्पादन बढ़ाना नहीं है — बल्कि मानव क्षमता को
जागृत करना है।
जब तक नागरिक
मुफ्त की मानसिकता से निकलकर श्रम, कौशल और आत्मसम्मान की ओर नहीं बढ़ेंगे, तब तक न देश
आर्थिक रूप से सशक्त होगा, न नागरिक मानसिक रूप से स्वतंत्र।
आज जब पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, नदियाँ उफान पर
हैं, और खेत कभी सूखे तो कभी डूबे रहते हैं, तब यह प्रश्न केवल नीति का
नहीं, जीवन के अस्तित्व का है। सरकार का दायित्व केवल
पेट भरना नहीं, संभावना जगाना है। और नागरिक का धर्म केवल
लाभ लेना नहीं, योगदान देना है।
भारत तभी सशक्त होगा जब हर नागरिक यह कह सके — “मुझे अनाज नहीं
चाहिए, मुझे अवसर दीजिए।”
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2 comments:
There is no free lunch -(Late) Dr. Manmohan Singh
अनाज नहीं, अवसर दीजिए।
वाह क्या बात है, आचार्य जी।
बेहद ही सटीक, अनुकरणीय और स्वाबलंबी बनाने वाला लेख है। आज के दिन ऐसा लेख और अनुशंसा पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इसके लिए आपको साधुवाद।
साहित्य सम्राट मुंशी प्रेम चंद जी को उनकी पुण्य तिथि पर कोटि कोटि नमन 🌹
सुदेश कुमार आर्य
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