"दुनिया की डोर किसके हाथ? – वैश्विक व्यवस्था, स्वार्थ और हमारी जिम्मेदारी"
लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा
दुनिया आज जिस चौराहे पर खड़ी है, वहां शक्ति का संतुलन बिगड़ चुका है। वैश्विक
राजनीति अब विचारधारा या सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि व्यक्तिगत अहम और
व्यापारिक हितों पर आधारित हो चली है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप
की नीतियां इस सच्चाई का आईना हैं। उन्होंने विश्व व्यापार संगठन (WTO), संयुक्त
राष्ट्र, पेरिस जलवायु समझौते जैसे वैश्विक मंचों को अपनी 'अमेरिका फर्स्ट' नीति के सामने
कमजोर कर दिया। उनकी दादागिरी से सिर्फ अमेरिका के नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लिए
संकट के बादल मंडराने लगे।
क्या यह विश्व के लिए नेतृत्व है या वैश्विक संकट का बीज?
ट्रंप की नीतियां दरअसल एक ऐसे नेता की छवि गढ़ती हैं जो अंतरराष्ट्रीय संवाद
को अपनी शर्तों पर चलाना चाहता है। चाहे वह चीन के साथ व्यापार युद्ध हो या ईरान
जैसे देशों पर प्रतिबंध, अमेरिका ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसके हित सर्वोपरि हैं
– बाकी दुनिया बाद में।
क्या चीन दे सकता है टक्कर?
चीन एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरा जरूर है, लेकिन वैश्विक नेतृत्व के
मामले में उसकी छवि अभी भी संदेह और संकोच से घिरी हुई है। लोकतांत्रिक मूल्यों और
पारदर्शिता की कमी चीन को उस नेतृत्व की ऊंचाई तक नहीं पहुंचने देती, जहां वह
अमेरिका की दादागिरी को संतुलित कर सके। चीन टक्कर जरूर देता है, लेकिन भरोसा
नहीं।
भारत – अपने दम पर या दूसरों के सहारे?
भारत की स्थिति अत्यंत चिंतनशील है। वह एक ओर अमेरिका की नीतियों का समर्थन
करता है तो दूसरी ओर विकासशील देशों की पीड़ा को भी समझता है। किंतु यह दोहरी
भूमिका कब तक चलेगी? क्या हम सदैव भगवान भरोसे रहेंगे या अमेरिका की गोद में
बैठकर अपनी आत्मनिर्भरता को खो देंगे?
भारत को तय करना होगा कि वह वैश्विक मंचों पर केवल दर्शक बनकर रहेगा या सक्रिय
भागीदार बनकर विश्व में संतुलन और न्याय की पुनः स्थापना करेगा।
WTO – मूक क्यों?
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना इसीलिए नहीं हुई थी कि वह महाशक्तियों की
कठपुतली बनकर रह जाए। उसका मौन आज उसकी निष्क्रियता का प्रतीक है। जब अमेरिका अपनी
मनमानी करता है और नियमों की धज्जियां उड़ाता है, तब WTO का खामोश रहना
आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरनाक संकेत है।
हम क्या आदर्श स्थापित कर रहे हैं?
हम अपने स्वार्थों में इतने लिप्त हो चुके हैं कि हमारे आदर्श अब व्यापार,
सत्ता और लाभ
तक सिमट गए हैं। हमें यह सोचने की जरूरत है कि हम आने वाली पीढ़ियों के सामने किस
प्रकार का संसार छोड़कर जा रहे हैं – एक ऐसा संसार जहां संवाद नहीं, दादागिरी है;
जहां सहयोग
नहीं, प्रतिस्पर्धा है; जहां नैतिकता नहीं, मुनाफा है।
क्या हमें आने वाली पीढ़ियां कोसेंगी?
हां, अगर हमने अभी भी आंखें न खोलीं, तो हमें आने वाली पीढ़ियां कोसेंगी। वे पूछेंगी
कि जब आपके पास ज्ञान था, अवसर था, ताकत थी, तो आपने क्या किया? क्या आप सिर्फ शक्तिशाली देशों के झगड़ों में
तमाशबीन बने रहे?
समय की मांग है कि भारत और अन्य उभरती शक्तियां मिलकर एक नई वैश्विक चेतना का
निर्माण करें – जहां न ट्रंप का दंभ हो, न चीन की चालाकी, और न WTO की चुप्पी। एक
ऐसी दुनिया चाहिए जहां नीति, नैतिकता और न्याय साथ चलें। यही सच्चा आदर्श होगा – और यही
हमारी अगली पीढ़ियों के लिए हमारी सबसे बड़ी विरासत।
"क्योंकि जो आज हम बो रहे हैं, वही कल उनकी छाया बनेगा –
या तो गर्व की, या पछतावे की।"
1 comment:
Achha lekh likha h smaj ko jagrook karne ka.
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