Sunday, October 19, 2025

दीपावली – क्या यह सच में ‘दीपों का पर्व’ रह गई है?

 दीपावली – क्या यह सच में ‘दीपों का पर्व’ रह गई है?

✍️ आचार्य रमेश सचदेवा

कभी दीपावली अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रतीक थी। यह पर्व था — आत्मा के भीतर के अंधकार को मिटाने का, अपने भीतर की ईर्ष्या, लोभ, और द्वेष को जलाकर राख करने का। पर आज वही दीपावली उपहारों की होड़, ब्रांडेड मिठाइयों की प्रदर्शनी और सोशल मीडिया के ‘फोटो फेस्टिवल’ में बदल चुकी है।

आज दीप नहीं जलते, बल्कि डीलें जलती हैं। लक्ष्मी पूजन नहीं होता, बल्कि लक्ज़री पूजन होता है। भक्ति नहीं, बल्कि बाज़ार बोलता है।

गरीब अब भी लक्ष्मी का इंतज़ार करता है — उसके घर के आँगन में अंधेरा जस का तस है। उसके लिए दीपावली का मतलब है — एक दिन पेट भर खाना, और शायद किसी अमीर की दया से मिले अधूरी मुस्कान।

हम सोचते हैं कि पटाखे न चलाने से भारत प्रदूषणमुक्त हो जाएगा, पर क्या यह पर्यावरण केवल हवा का नाम है? हमारे मन का प्रदूषण, हमारी सोच की सड़ांध, हमारी संवेदनाओं की राख — क्या उसे भी कोई सफाई अभियान छू पाएगा?

हमने दीपावली को त्यौहार नहीं, त्याग का बहाना बना दिया है — त्याग नहीं अच्छाई का, बल्कि विवेक का।
हर घर में ‘क्या नया खरीदा?’ का सवाल है, पर ‘किसे नया जीवन दिया?’ यह सवाल कोई नहीं पूछता।

सच तो यह है — हम दीप जलाने के बजाय दिल बुझा रहे हैं, हम पटाखे छोड़ने के बजाय अपने संस्कार छोड़ रहे हैं। हमने ‘दीपावली मनाना’ छोड़कर केवल ‘दिखाना’ सीख लिया है।

यदि इस त्यौहार की आत्मा को सच में समझना हैतो जरूरत है एक दीप मानवता का जलाने की
जो गरीब के घर में रौशनी करे, जो किसान के माथे की लकीर मिटाए, जो श्रमिक के बच्चे को मुस्कुराने की वजह दे।

वह दीप ही असली दीपावली का दीप होगा —  जो उपहारों से नहीं, उपकारों से जलेगा।

Saturday, October 18, 2025

दीप जलें मुस्कान के

               


                                                  दीप जलें मुस्कान के

(दोहा संग्रह)
लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

 

मुस्कानों के दीप को, हर दिल में भर लायें।
ऐसी प्यारी दीवाली, मिलजुल सब मनायें।।

 

छोटे-बड़े का भेद क्या, जब सबको अपनायें।
प्रेम बाँटते दीप हों, द्वेष दूर हटायें।।

 

जो भूखे हैं राह में, उनको भोजन दें।
सुख-दुख के इस पर्व पर, संग-संग आगे बढ़ें।।

 

रूठे रिश्तों को मनायें, तो पर्व बने खास।
दीप जलें विश्वास के, बुझे नहीं उजास।।

 

हारे मन को थाम लें, टूटे को समझायें।
उम्मीदों के दीप से, जीवन रौशन पायें।।

 

रंग न हो केवल बाहर, रंगें मन के भाव।
खुशियों की रंगोली में, मिटें सभी तनाव।।

 

सपने जो बिखरे हुए, उनको जोड़ चलें।
हर दीया बनकर जिएं, उजियारा हम छलें।।

Wednesday, October 15, 2025

डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम – सपनों को साकार करने वाला साधक

         


        डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम – सपनों को साकार करने वाला साधक

रात का समय था। शिलांग के सभागार में सैकड़ों विद्यार्थी बैठे थे। मंच पर एक वृद्ध वैज्ञानिक, जिनके चेहरे पर असीम शांति और आँखों में चमक थी, विद्यार्थियों से कह रहे थे —

“Dream! Dream! Dream! Dreams transform into thoughts and thoughts result in action.”
कुछ ही क्षण बाद वही वैज्ञानिक मंच पर गिर पड़े — यह उनका अंतिम व्याख्यान था।
वह थे — भारत के मिसाइल मैन, भारतरत्न डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम।

उनका जीवन किसी किताब के पन्नों में नहीं, बल्कि करोड़ों दिलों में लिखा गया है। एक साधारण नाव चलाने वाले के घर जन्मा बालक, जो सुबह-सुबह अख़बार बाँटकर अपनी पढ़ाई का खर्च निकालता था, आगे चलकर उस भारत का राष्ट्रपति बना, जिसे उसने विज्ञान और आत्मनिर्भरता की दिशा दिखाई।

रामेश्वरम की गलियों में जन्मा वह बालक जब स्कूल में बैठता था, तो शिक्षक के हर शब्द को ऐसे आत्मसात करता मानो जीवन का कोई मंत्र सुन रहा हो। वह कहता था —

मुझे उड़ना था, पर मेरे पास पंख नहीं थे; पर मेरे गुरु ने मुझे उड़ना सिखा दिया।
यह वाक्य उनके जीवन का मूल बन गया — शिक्षक ही उड़ान के पहले पंख होते हैं।

बचपन के उस छोटे से कस्बे में गरीबी थी, लेकिन सपनों की कोई कमी नहीं। उनके पिता धार्मिक और सादे स्वभाव के व्यक्ति थे, जो बिना दिखावे के दूसरों की मदद करते थे। यही सेवा भावना आगे चलकर कलाम जी के व्यक्तित्व की पहचान बनी।

जब जीवन ने उन्हें वायुसेना में चयन न होने का दुःख दिया, तो उन्होंने हार मानने के बजाय उसे नयी शुरुआत बना लिया। वे कहते थे —

असफलता मुझे नहीं गिरा सकती, क्योंकि मैंने उड़ना सीख लिया है।”     
उनके जीवन की यह सोच ही आगे चलकर उन्हें सफलता के सबसे ऊँचे शिखर पर ले गई।

डॉ. कलाम के भीतर का वैज्ञानिक किसी प्रयोगशाला में नहीं, बल्कि राष्ट्र के सपनों में जन्मा था। जब उन्होंने ISRO में कदम रखा, तब भारत उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में संघर्षरत था। वे कहते थे —

अगर किसी राष्ट्र को सशक्त बनना है तो उसे तीन शक्तियाँ चाहिए — सेना की, अर्थव्यवस्था की और सबसे बढ़कर — ज्ञान की।”      
उसी ज्ञान की शक्ति से उन्होंने भारत को अंतरिक्ष और मिसाइल शक्ति के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया।
उनकी अगुवाई में रोहिणी उपग्रह का प्रक्षेपण हुआ, और भारत ने अंतरिक्ष की ओर पहला आत्मनिर्भर कदम बढ़ाया।

उनके जीवन का सबसे गौरवपूर्ण क्षण वह था जब 1998 में पोखरण की धरती पर भारत ने परमाणु शक्ति का प्रदर्शन किया। देश के हर कोने में सिर्फ एक नाम गूंजा — डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम!
वह दृश्य केवल वैज्ञानिक सफलता का नहीं, बल्कि आत्मगौरव का प्रतीक था। उन्होंने भारत को यह विश्वास दिलाया कि हम किसी से कम नहीं।

राष्ट्रपति बनने के बाद भी कलाम जी में वैज्ञानिक और शिक्षक दोनों जीवित रहे।
राष्ट्रपति भवन में बच्चों के पत्रों का ढेर लगा रहता था, और वे हर पत्र का उत्तर देते थे।
वे बच्चों से कहते — बड़े सपने देखो, क्योंकि बड़े सपने ही बड़े लोगों को जन्म देते हैं।
उनकी यह सरलता और आत्मीयता उन्हें जनता के बीच People’s Presidentबना गई।

उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं —
‘Wings of Fire’, ‘Ignited Minds’, ‘India 2020’ये केवल पुस्तकें नहीं, बल्कि पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन हैं।
एक जगह उन्होंने लिखा —

जब आप अपना सर्वश्रेष्ठ किसी कार्य में लगाते हैं, तो ईश्वर स्वयं उस कार्य को सफल बनाने में सहयोग करता है।
उनकी लेखनी में विज्ञान की दृढ़ता और अध्यात्म की विनम्रता दोनों झलकती थी।

डॉ. कलाम को सैकड़ों पुरस्कार मिले —
पद्म भूषण, पद्म विभूषण, और देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न
पर जब उनसे पूछा गया कि कौन-सा सम्मान आपके लिए सबसे बड़ा है?”
तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा — जब कोई छात्र कहता है कि मैंने आपकी किताब से प्रेरणा ली — वही मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार है।

वे केवल भौतिक विकास की बात नहीं करते थे, बल्कि मानवीय मूल्यों के विकास पर भी बल देते थे। उनका मिशन 2020 केवल आर्थिक प्रगति का नहीं, बल्कि नैतिकता और शिक्षा से सम्पन्न भारत का स्वप्न था। वे कहते थे — विकसित भारत का निर्माण विज्ञान और मूल्य, दोनों के संगम से होगा।

27 जुलाई 2015 की वह शाम जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तब भी वे मंच पर थे, विद्यार्थियों के बीच, शिक्षा के अपने प्रिय विषय पर बोलते हुए। यह केवल मृत्यु नहीं थी, बल्कि एक दीपक का बुझना ताकि हजारों दीप जल सकें।

आज भी जब कोई बच्चा किताबों के पन्नों के बीच सपनों का संसार खोजता है, तो कहीं न कहीं डॉ. कलाम मुस्कुराते हैं। जब कोई शिक्षक अपने विद्यार्थियों को प्रेरणा देता है, तो उसमें कलाम की आत्मा बसती है। उनका जीवन यह सिखाता है कि —

कठिनाइयाँ जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन हारना विकल्प नहीं।
सपनों को लक्ष्य बनाओ, और लक्ष्य को जीवन।

डॉ. अब्दुल कलाम एक व्यक्ति नहीं, एक विचार हैं — एक ऐसा विचार जो हर विद्यार्थी को ऊँचा सोचने, सच्चा कर्म करने और देश से प्रेम करने की प्रेरणा देता है। उनकी स्मृति में हर 15 अक्टूबर न केवल जन्मदिवस है, बल्कि प्रेरणा दिवस है — एक याद दिलाने वाला दिन कि    

जो आकाश को छूने का साहस रखते हैं, उन्हें धरती रोक नहीं सकती।

           https://www.youtube.com/watch?v=CTPbHx5mMzk

Sunday, October 12, 2025

अहोई अष्टमी – बच्चों के स्वास्थ्य की कामना का पर्व

 

अहोई अष्टमी – बच्चों के स्वास्थ्य की कामना का पर्व

भारतीय संस्कृति में हर त्योहार के पीछे एक सुंदर भावना और जीवन से जुड़ा संदेश छिपा होता है। अहोई अष्टमी भी ऐसा ही एक पर्व है जो मातृत्व, स्नेह और संतान के प्रति ममता की प्रतीक है। यह व्रत विशेष रूप से संतान की लंबी आयु, सुख और स्वास्थ्य की कामना के लिए किया जाता है।

अहोई अष्टमी का व्रत कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है। यह व्रत दीपावली से लगभग सात दिन पहले आता है। इस दिन माताएँ पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और सायंकाल अहोई माता की पूजा करती हैं।
अहोई माता को अक्सर सूतक (सुई जैसी आकृति) और सात पुत्रों के साथ दीवार पर चित्रित किया जाता है। पूजा के समय माताएँ धागे में सात गांठें लगाती हैं और दीपक जलाकर कथा सुनती हैं।

लोक मान्यता के अनुसार, एक बार एक महिला जंगल में मिट्टी खोदने गई। अनजाने में उसकी फावड़ी से एक साही (सूंअरन) का बच्चा मर गया। साही ने क्रोधित होकर उस महिला को शाप दिया कि उसकी संतान का नाश हो जाएगा।
इस शाप से दुखी महिला ने तपस्या की और देवी की प्रार्थना की। देवी ने प्रसन्न होकर कहा कि यदि वह कार्तिक कृष्ण अष्टमी को उनका व्रत करेगी तो उसके पाप का नाश होगा। उसी दिन से यह अहोई अष्टमी व्रत प्रचलित हुआ।

माताएँ सुबह स्नान कर व्रत का संकल्प लेती हैं और पूरे दिन अन्न-जल का त्याग करती हैं। शाम को तारे निकलने पर अहोई माता की पूजा की जाती है। महिलाएँ चित्र या कैलेंडर पर बने अहोई माता के चित्र के सामने दीपक जलाकर कथा सुनती हैं। पूजा के बाद बच्चों का मुख देखकर व्रत तोड़ा जाता है।

अहोई अष्टमी केवल एक धार्मिक व्रत नहीं, बल्कि माँ और बच्चे के बीच के प्रेम, त्याग और आशीर्वाद का पर्व है। यह व्रत माताओं को निःस्वार्थ भाव से अपनी संतान की रक्षा और कल्याण की भावना से जोड़ता है।
इस दिन का मूल संदेश है कि माता की सच्ची प्रार्थना और आस्था से हर संकट दूर हो सकता है।

अहोई अष्टमी हमें सिखाती है कि मातृत्व सबसे पवित्र शक्ति है। माँ का उपवास, आशीर्वाद और प्रेम ही बच्चे की सबसे बड़ी रक्षा है। यह पर्व हर माँ को अपनी संतान के सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की कामना के साथ जीवन में सकारात्मकता और श्रद्धा बनाए रखने की प्रेरणा देता है।

Thursday, October 9, 2025

चिट्ठियाँ – दिल से दिल तक का सफ़र

 

💌 चिट्ठियाँ – दिल से दिल तक का सफ़र

(विश्व डाक दिवस – 9 अक्टूबर के अवसर पर)

आज 9 अक्टूबर है — विश्व डाक दिवस
पर सवाल उठता है — कहाँ गईं वो चिट्ठियाँ? कहाँ गए डाकिए?”
कभी जो हर आँगन में खुशियों की खबर लाते थे, आज वो यादों की धूल में कहीं खो गए हैं।

✉️ चिट्ठियों का महत्व – शब्दों से ज़्यादा भावनाओं का भार

चिट्ठी सिर्फ कागज़ पर लिखे शब्द नहीं होती थी, वह भावनाओं की धड़कन होती थी।
हर अक्षर में किसी का इंतज़ार बसता था, हर लिफ़ाफे में किसी की सांसें बंधी होती थीं।

कभी माँ अपने बेटे को परदेस में लिखती — बेटा, खाना समय पर खा लेना।
कभी पिता अपने बच्चे के हेडमास्टर को पत्र लिखता — मेरा बेटा शरारती है, पर दिल से अच्छा है, उसे समझाइए।

इतिहास गवाह है — नेहरू जी ने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को जेल से चिट्ठियाँ लिखीं,
जो आज भी Letters from a Father to His Daughterके नाम से ज्ञान और स्नेह का अमर दस्तावेज़ हैं। और इतिहास में दर्ज है हुमायूं को कर्मवती की वह चिट्ठी, जिसमें उसने ‘राखी’ के रिश्ते से अपनी रक्षा मांगी थी — कागज़ के उस टुकड़े ने एक सम्राट के हृदय को बाँध लिया था।

💌 फौजियों के लिए चिट्ठियाँ – सांसों की डोर

फौजियों के लिए तो चिट्ठियाँ अब भी ज़िंदगी की रेखा हैं।
जहाँ मोबाइल नेटवर्क नहीं पहुँचता, वहाँ आज भी डाकिए की थैली उम्मीद लेकर पहुँचती है।
कभी कोई लिखता — आपकी चिट्ठी आई, तो जैसे सारा मोर्चा फूलों से भर गया।

गीत याद आता है —
🎵चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है…
वो चिट्ठियाँ जो आँसुओं से भीगी होती थीं, पर मन में अटूट हिम्मत भर देती थीं।

📱 ईमेल और व्हाट्सएप के युग में बदलाव

अब सबकुछ बदल गया है — ईमेल, व्हाट्सएप, इमोजी, वॉइस नोट्स ने जगह ले ली है।
संदेश अब सेकंडों में पहुँच जाते हैं, पर उनमें वह ऊष्मा नहीं, जो हाथ से लिखी चिट्ठी में होती थी।

लाभ यह हुआ कि दूरी घट गई, समय बचा, पर हानि यह हुई कि भावनाओं की गहराई खो गई।
अब न कोई प्रिय पुत्र लिखता है, न कोई आपका स्नेही लिखकर पत्र समाप्त करता है।

चिट्ठियों में जो सुगंध, धैर्य और इंतज़ार की मिठास थी, वह अब डिजिटल युग की गति में कहीं खो गई है।

कागज़ की खुशबू अब डिजिटल नहीं होती, चिट्ठी का दर्द अब संदेशों में नहीं रोता।

ऐसे भी कहा जा सकता है कि

जो लफ़्ज़ दिल से निकलते थे, वो अब टाइप होकर ठंडे हो गए,
जो खत में गिरे आँसू थे, वो अब इमोजी में ढल गए।

आज विश्व डाक दिवस पर हमें याद रखना चाहिए — तकनीक चाहे कितनी भी आगे बढ़ जाए,
पर दिल से लिखी चिट्ठी की स्याही कभी सूखती नहीं।

कभी किसी प्रियजन को कुछ शब्द हाथ से लिखिए — देखिए, आपके लिखे हुए शब्द कैसे उनके दिल में जगह बनाते हैं। क्योंकि — चिट्ठियाँ अब नहीं आतीं, पर यादें अब भी पहुँच जाती हैं।