Thursday, December 25, 2025

अरावली पर्वतमाला पर विस्तृत विचारणीय लेख : अरावली पर्वतमाला जो खड़े-खड़े अपराधी हो गई।

 


अरावली पर्वतमाला जो खड़े-खड़े अपराधी हो गई। 
कम से कम उसे तो छोड़ दिया जाए जो मानवीय अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है

(अरावली पर्वतमाला पर विस्तृत विचारणीय लेख)

द्वारा आचार्य रमेश सचदेवा (शिक्षाविद एवं विचारक)

अरावली पर्वतमाला भारत की सबसे प्राचीन प्राकृतिक धरोहरों में से एक है। करोड़ों वर्ष पुरानी यह पर्वतमाला केवल भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि उत्तर भारत के जीवन-तंत्र की रीढ़ है। इसके बावजूद आज अरावली सबसे अधिक उपेक्षित और शोषित प्राकृतिक संपदा बन चुकी है। प्रश्न यह नहीं है कि खनन से कितना लाभ हो रहा है, प्रश्न यह है कि इस लाभ की कीमत कौन चुका रहा है—और कब तक?

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अरावली पर्वतमाला को लेकर दिए गए निर्णय को अंतिम या अपरिवर्तनीय नहीं माना जा सकता, क्योंकि न्यायालय स्वयं अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करता रहा है। केवल 100 मीटर ऊँचाई के आधार पर अरावली की पहचान करना तर्कसंगत नहीं है—100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ भी लावारिस नहीं हो सकतीं। सम्पूर्ण अरावली पर्वतमाला को सुरक्षित और संरक्षित किया जाना चाहिए।

अरावली लगभग 692 किलोमीटर लंबी, करोड़ों वर्ष पुरानी प्राकृतिक धरोहर है, जो दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के पर्यावरण संतुलन की रीढ़ है। यदि इसका विनाश जारी रहा तो दिल्ली-एनसीआर सहित मैदानी क्षेत्रों में भीषण गर्मी, मरुस्थलीकरण और प्रदूषण खतरनाक स्तर तक बढ़ जाएगा। पीएम-10, पीएम-2.5 जैसे प्रदूषक स्थायी रूप से वायु गुणवत्ता को गंभीर श्रेणी में ले जाएंगे।

हरियाणा के भिवानी ज़िले के तोशाम विधानसभा क्षेत्र के एक छोटे-से गाँव का दृश्य सामने आया है। वहाँ हर 100 कदम पर 300 क्रशर मशीनें पहाड़ियों को खोद रही हैं। 120 से अधिक खनन साइट्स हैं, जहाँ हर समय 300 से अधिक डंपर मौजूद रहते हैं। गाँव में लगभग 1200 घर हैं और अधिकांश घरों की दीवारों में दरारें पड़ चुकी हैं या प्लास्टर झड़ चुका है।

क्या खनन की इजाज़त इसलिए दी जा रही है कि पहाड़ियों से बेशकीमती खनिज निकलते हैं और माफिया अमीर होता चला जाए? अरावली पर्वतमाला के प्रत्येक हेक्टेयर में लगभग 20 लाख लीटर भू-जल पुनर्भरण की क्षमता है। सोचिए, जब पानी ही नहीं होगा तो खेती कैसे होगी और पीने के लिए पानी कहाँ से आएगा?

अरावली को काटने-छाँटने से एक दिन ऐसा आएगा कि बनास, लूणी, साहिबी जैसी नदियाँ सूख जाएँगी। तेंदुआ, भेड़िया, सियार जैसे जंगली जानवर और अनेक वनस्पतियाँ भी विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाएँगी।

अरावली केवल एक पर्वतमाला नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की रक्षा कवच है। इसलिए इसके संरक्षण के लिए सभी राज्यों में व्यापक और सशक्त जन-आंदोलन अनिवार्य है।

अरावली पर्वतमाला थार मरुस्थल और उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों के बीच एक प्राकृतिक दीवार का कार्य करती है। यह रेतीली हवाओं को रोकती है, मानसून को दिशा देती है और वर्षा को संभव बनाती है। इसके प्रत्येक हिस्से में भू-जल पुनर्भरण की अद्भुत क्षमता है। जिस दिन यह क्षमता समाप्त हो गई, उस दिन पानी, खेती और जीवन—तीनों संकट में पड़ जाएंगे।

आज अरावली में हो रहा अनियंत्रित खनन केवल पहाड़ों को नहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को तोड़ रहा है। पहाड़ियों के कटते ही तापमान बढ़ रहा है, वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच रहा है और जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और राजस्थान पहले ही भीषण गर्मी और प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। अरावली का क्षरण इस संकट को कई गुना बढ़ा देगा।

यह विडंबना ही है कि विकास की परिभाषा को केवल कंक्रीट, सड़क और खनिज तक सीमित कर दिया गया है। वास्तविक विकास वह है, जो प्रकृति और मानव—दोनों के अस्तित्व को सुरक्षित रखे। यदि विकास के नाम पर जीवन-रक्षक पहाड़ों को ही समाप्त कर दिया गया, तो यह प्रगति नहीं, आत्मघाती भूल होगी।

अरावली केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक प्रश्न भी है। यह आने वाली पीढ़ियों के अधिकारों से जुड़ा हुआ है। क्या हमें यह अधिकार है कि हम अपने तात्कालिक लाभ के लिए उनके भविष्य को बंधक बना दें? क्या खनिज माफिया का मुनाफा करोड़ों लोगों के जीवन से अधिक मूल्यवान है?

आज आवश्यकता है कि सरकार, न्यायपालिका और समाज—तीनों मिलकर अरावली के संरक्षण के लिए कठोर और ईमानदार कदम उठाएँ। कानून केवल काग़ज़ों में नहीं, ज़मीन पर लागू होने चाहिए। साथ ही जन-जागरूकता और जन-आंदोलन भी आवश्यक हैं, ताकि यह संदेश स्पष्ट हो जाए कि प्रकृति के साथ समझौता नहीं किया जा सकता।

अंततः यही कहना होगा कि विकास की दौड़ में यदि कुछ छोड़ना ही पड़े, तो विलास छोड़िए, लालच छोड़िए—
कम से कम उसे तो छोड़ दिया जाए जो मानवीय अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।  
अरावली को बचाना केवल पहाड़ों को बचाना नहीं, बल्कि जीवन को बचाना है।

Saturday, December 20, 2025

गाना आए या न आए, गाना चाहिए

 


गाना आए या न आए, गाना चाहिए


हमारे समाज में एक अजीब-सा दबाव चुपचाप पनप गया है—

कि जो दिखे, वही बिके।

जो शोर करे, वही सुना जाए।

और जो मंच पर आ जाए, उसे हर हाल में “परफ़ॉर्म” करना ही चाहिए।

यही सोच आज के दौर का नया मंत्र बन गई है—

गाना आए या न आए, गाना चाहिए।

यह पंक्ति केवल संगीत तक सीमित नहीं है।

यह आज की जीवन-शैली, शिक्षा, राजनीति, सोशल मीडिया और यहां तक कि रिश्तों पर भी सटीक बैठती है।

आज सवाल यह नहीं रहा कि आता है या नहीं,

सवाल यह हो गया है कि दिख रहा है या नहीं।

सोशल मीडिया के मंच पर हर कोई कलाकार है।

कोई लिखना नहीं जानता, फिर भी लेखक है।

कोई बोलना नहीं जानता, फिर भी वक्ता है।

कोई सुनना नहीं जानता, फिर भी गुरु है।

भीड़ ताली चाहती है,

और व्यक्ति ताली के लिए स्वयं को ही खो बैठता है।

दुखद यह है कि इस शोर में

वह स्वर दब जाता है जो सच में साधना से निकला होता है।

जो अभ्यास से आया होता है।

जो चुपचाप भीतर पकता है।

आज बच्चे को यह नहीं सिखाया जाता कि

पहले सुर साधो,

पहले शब्द समझो,

पहले विचार को परिपक्व करो।

उसे यह सिखाया जाता है—

“स्टेज पर चढ़ो, बोलो, दिखो, वायरल हो जाओ।”

पर क्या हर आवाज़ गाना होती है?

और क्या हर मंच योग्यता का प्रमाण है?

समाज को यह समझना होगा कि

हर किसी का गाना अलग होता है।

कुछ का स्वर मंच पर खिलता है,

तो कुछ का मौन ही सबसे सुंदर गीत होता है।

यदि हम हर व्यक्ति से ज़बरदस्ती गाना गवाएंगे,

तो न सुर बचेगा,

न संवेदना,

न सच्चाई।

हमें फिर से उस समय की ओर लौटना होगा

जहाँ पहले सीख थी,

फिर प्रस्तुति।

जहाँ पहले तैयारी थी,

फिर तालियाँ।

वरना एक दिन ऐसा आएगा कि

सब गा रहे होंगे,

पर सुनने वाला कोई नहीं होगा।

और तब यह पंक्ति केवल व्यंग्य नहीं,

हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी बन जाएगी—

गाना आए या न आए, गाना चाहिए।

आचार्य रमेश सचदेवा

(शिक्षाविद एवं विचारक)

Friday, December 12, 2025

मिलजुल कर रहना और साथ बैठकर भोजन करना—तनाव-मुक्त जीवन, स्वास्थ्य और सफलता का मूलमंत्र



मिलजुल कर रहना और साथ बैठकर भोजन करना—तनाव-मुक्त जीवन, स्वास्थ्य और सफलता का मूलमंत्र

द्वारा : आचार्य रमेश सचदेवा (शिक्षाविद, विचारक)

आज की तेज़ रफ्तार और अकेलेपन से भरी दुनिया में एक पुरानी, सरल-सी आदत तेजी से गायब होती जा रही है—
मिलजुल कर रहना और साथ बैठकर भोजन करना।
यह परंपरा सिर्फ एक सामाजिक व्यवहार नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन, शारीरिक स्वास्थ्य और पारिवारिक सौहार्द का आधार रही है। आश्चर्य की बात है कि जिस आदत ने हमारी पीढ़ियों को स्वस्थ, खुशहाल और जुड़ा हुआ रखा, उसी से हम सबसे अधिक दूर होते जा रहे हैं।

सबसे पहले बात तनाव की।
मानव मन अकेलेपन को सबसे अधिक बोझ की तरह ढोता है। लेकिन जब हम साथ बैठकर खाते हैं, बातें करते हैं, अपनी दिनभर की छोटी-बड़ी बातें साझा करते हैं, तो भीतर जमा हुआ तनाव अनायास ही पिघलने लगता है। भोजन सिर्फ पोषण नहीं देता, भावनात्मक रिलीज भी देता है—और यही कारण है कि संयुक्त परिवारों में मानसिक तनाव अपेक्षाकृत कम पाया जाता था। आज मनोवैज्ञानिक पुनः यही बात दोहरा रहे हैं कि साझा भोजन मानसिक स्वास्थ्य की थेरेपी बन सकता है।

दूसरा पहलू है स्वास्थ्य।
भोजन का माहौल हमारे खाने के तरीके को बदल देता है। परिवार के साथ बैठकर खाने वाला व्यक्ति न तो जल्दी-जल्दी खाता है और न ही अनियंत्रित स्नैक्स का शिकार होता है। ऐसे भोजन में प्यार, अनुशासन और संतुलन—तीनों जुड़े होते हैं। यही कारण है कि शोध बताते हैं कि परिवार के साथ भोजन करने वाले बच्चों में मोटापा कम होता है, और बड़े भी बेहतर जीवनशैली अपनाते हैं।

तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू है सफलता।
शायद यह बात सुनकर कुछ लोग चौंकें, पर यह सत्य है कि सफलता का बीज घर की भोजन-सभा में ही बोया जाता है।
क्योंकि वहीं संवाद विकसित होता है, वहीं मूल्य गढ़े जाते हैं, वहीं सुनने-समझने की कला बनती है और वहीं टीमवर्क की शुरुआत होती है।
जो परिवार साथ बैठकर खाते हैं, उनमें रिश्ते मजबूत रहते हैं, और जहां रिश्ते मजबूत हों, वहां आत्मविश्वास, संबल और निर्णय शक्ति स्वतः बढ़ती है। यही तीनों गुण जीवन और करियर—दोनों की सफलता का आधार बनते हैं।

लेकिन आज स्थिति इसके विपरीत है।
व्यस्त दिनचर्या, मोबाइल की गिरफ्त, और “अपनी-अपनी प्लेट” वाली संस्कृति ने घरों को डाइनिंग-टेबल से दूर कर दिया है।
परिवार एक ही छत के नीचे रहता है, पर जीता अलग-अलग है।
बच्चों की समस्याएं अनदेखी रह जाती हैं, बुजुर्गों की बातें अनसुनी, और घर का माहौल केवल “साथ रहने” तक सिमट कर रह जाता है, “साथ जुड़ने” तक नहीं पहुँच पाता।

अब समय है इस आदत को पुनः अपनाने का।
यह बहुत बड़ा सामाजिक सुधार नहीं,
केवल एक निर्णय है—
कि हम दिन में एक बार, चाहे कितना भी व्यस्त हों, परिवार के साथ बैठकर भोजन करेंगे।
यही छोटा-सा संकल्प तनाव-मुक्त मन, स्वस्थ शरीर और सफल जीवन की ओर पहला कदम बन सकता है।

दरअसल, मिलजुल कर रहना और साथ बैठकर खाना कोई पुरानी परंपरा नहीं,
आधुनिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
और जिस दिन समाज इसे समझ लेगा, उस दिन हम मानसिक स्वास्थ्य संकट, पारिवारिक विघटन और अनावश्यक प्रतिस्पर्धा से काफी हद तक मुक्त हो जाएंगे।

एक ही संदेश के साथ मैं इस विषय को समाप्त करना चाहूँगा—

साथ रहना सिर्फ घर बनाता है,

साथ खाना—रिश्तों को जीवन देता है।

Wednesday, December 3, 2025

किताबों के साथ-साथ, लोगों को भी पढ़िए

 


किताबों के साथ-साथ, लोगों को भी पढ़िए

— आचार्य रमेश सचदेवा (शिक्षाविद, विचारक)

हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम जानकारी के महासागर में रहते हुए भी समझ के स्तर पर सूखे पड़े हैं। ज्ञान के स्रोत बढ़े हैं, पर अनुभव की परख घटती जा रही है। किताबें पहले से अधिक उपलब्ध हैं, पर उन्हें पढ़ने का धैर्य नहीं; और लोग पहले से अधिक दिखते हैं, पर उन्हें समझने की क्षमता नहीं। ऐसे में यह वाक्य पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाता है— “किताबों के साथ-साथ, लोगों को भी पढ़िए।”

किताबें हमारे बौद्धिक विकास का आधार हैं। वे इतिहास का बोध कराती हैं, विज्ञान की जटिलता समझाती हैं और दुनिया के विविध विचारों से परिचित कराती हैं। किताबें सभ्यता को दिशा देती हैं। परंतु यदि मनुष्य केवल किताबों से ज्ञान ग्रहण कर ले, और लोगों को पढ़ने की कला न सीखे, तो उसका ज्ञान अधूरा रह जाता है। सिद्धांतों की दुनिया और वास्तविक जीवन के अनुभवों में जो पुल है, वह केवल "लोगों" से गुजरकर ही बनता है।

लोगों को पढ़ना एक कला है—और यह कला धीरे-धीरे सीख में बदलकर परख बनती है। कोई व्यक्ति अपने व्यवहार से विश्वास सिखा जाता है, कोई अपनी चतुराई से सावधानी; कोई संघर्षों से साहस देता है तो कोई अपनी गलतियों से हमें दिशा दिखा जाता है। हर व्यक्ति एक खुली किताब है—बस पन्ने पढ़ने की दृष्टि चाहिए।

किताबें ज्ञान दे सकती हैं, पर वे जीवन के उतार-चढ़ाव नहीं जी सकतीं। किताबें नियम बता सकती हैं, पर वे परिस्थितियों के दबाव को नहीं समझातीं। किताबें आदर्श दिखाती हैं, लेकिन लोगों के अनुभव बताते हैं कि आदर्शों से समझौता कब आवश्यक है और कब नहीं। यही कारण है कि सिर्फ किताबें पढ़ने वाले लोग कई बार "जानकार" तो होते हैं, पर "परिपक्व" नहीं।

किसी व्यक्ति की मुस्कान, उसकी आवाज़, उसके बोलने का ढंग, उसकी चुप्पी—ये सब वे पंक्तियाँ हैं जो किसी भी किताब में नहीं मिलतीं। जीवन की कई सबसे महत्वपूर्ण सीखें उन लोगों से मिलती हैं जो हमारे आस-पास रहते हैं। कभी माता-पिता की सरल बातों में, कभी किसी शिक्षक की डाँट में, कभी किसी साधारण व्यक्ति के संघर्ष में, तो कभी किसी संबंध के टूटने में। ये जीवन की वे अनलिखी पुस्तकें हैं जिन्हें पढ़ने वाला व्यक्ति कभी भ्रमित नहीं होता।

और यह भी सच है कि लोगों को पढ़ना हमें स्वयं को समझने की दिशा भी देता है। हम कौन हैं?

हम कहाँ गलत पड़ते हैं? किस बात पर टूट जाते हैं और किस बात पर खिल उठते हैं? इसका उत्तर अक्सर हमें हमारे ही आसपास के लोग दे जाते हैं—अनजाने में, अनकहे में।

आज जब सामाजिक संबंध औपचारिकता में बदलते जा रहे हैं और बातचीत का स्थान स्क्रीन ने ले लिया है, लोगों को पढ़ने की संवेदना और भी आवश्यक हो गई है। किताबें हमें दुनिया से जोड़ती हैं, पर लोग हमें जीवन से जोड़ते हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम ज्ञान और अनुभव—दोनों से बने संतुलित मनुष्य बनें।

अंततः यह समझना होगा कि किताबें बुद्धि को तेज़ करती हैं, लेकिन लोग बुद्धि को दिशा देते हैं। किताबें आपको ऊँचा उठा सकती हैं, पर लोग आपको संभालना सिखाते हैं।

जीवन की परिपक्वता इन दोनों के सार से ही जन्म लेती है। इसीलिए—

किताबें पढ़िए, पर लोगों को पढ़ना न भूलिए।


Saturday, November 29, 2025

व्यस्तता का सच — लोग समय नहीं, खुद को खोते जा रहे हैं

 


व्यस्तता का सच — लोग समय नहीं, खुद को खोते जा रहे हैं

हम अक्सर सुनते हैं— लोग बदल गए हैं, किसी के पास समय ही नहीं।
पर क्या सचमुच समय की कमी है?
या हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहाँ व्यस्तता एक ढाल बन गई है और संवेदनाएँ बोझ समझी जाने लगी हैं?

आज का मनुष्य काम में अधिक, रिश्तों में कम दिखाई देता है।
लेकिन यह दूरी केवल सामाजिक नहीं है, यह गहरी मनोवैज्ञानिक खाई है।
लोग यूँ ही व्यस्त नहीं होते; वे इसलिए व्यस्त होते हैं क्योंकि खालीपन उनसे सवाल करता है—
और उन सवालों का सामना करना उन्हें सबसे कठिन लगता है।

दर्द का नया पता: कार्यस्थल

समाज ने सफलता को इतना महिमामंडित कर दिया है कि भावनाओं के लिए कोई जगह ही नहीं बची। लोगों ने अपनी उलझनों से बचने का सबसे आसान उपाय ढूंढ लिया है—
खुद को काम में डुबो दो।

काम उन्हें वह शोर देता है जिसमें उनकी अंदरूनी आवाज़ें दब जाती हैं। घर की खामोशी, रिश्तों की दरारें और मन की बेचैनियाँ उन्हें काम के घंटों में कम महसूस होती हैं, इसलिए वे काम को समय नहीं, अपना आश्रय मान बैठे हैं।

मुस्कुराहटों के पीछे की थकावट

सबसे विडंबना यह है कि ऐसे लोग ज़्यादा हंसते हैं, ज़्यादा सामाजिक दिखते हैं, अधिक सक्रिय रहते हैं— क्योंकि वे टूटने का अंदेशा किसी को नहीं देना चाहते।

समाज में ‘मजबूत’ दिखने की मजबूरी ने लाखों लोगों को अपनी भावनाएँ भीतर ही भीतर दफन करने के लिए मजबूर किया है। मुस्कुराहट अब दिल हल्का करने का तरीका नहीं, दर्द छुपाने की तकनीक बन चुकी है।

व्यस्तता: समाधान नहीं, मन का भागना

यह मानने का समय आ गया है कि काम में डूब जाना किसी भी मानसिक पीड़ा का वास्तविक उपचार नहीं। यह केवल दर्द को स्थगित करता है। जो लोग लगातार खुद को थका रहे हैं, वह अपने भीतर एक अनकहा तनाव जमा कर रहे हैं जो किसी दिन अवसाद, अनिद्रा या भावनात्मक टूटन के रूप में फट पड़ता है।

व्यस्तता एक आदत बन जाती है, और धीरे-धीरे यह आदत मनुष्य को उसकी संवेदनाओं, उसके रिश्तों,
यहाँ तक कि स्वयं से भी दूर कर देती है।

समस्या का समाधान: आत्म-संवाद और स्वीकार्यता

सच्ची मजबूती यह नहीं कि इंसान कभी टूटे नहीं; सच्ची मजबूती यह है कि वह अपने टूटन को पहचाने, उसे स्वीकार करे, और उसे भरने का साहस जुटाए।

हमें एक ऐसे समाज की आवश्यकता है— जहाँ लोग अपनी भावनाओं के लिए माफी न माँगें,
जहाँ व्यस्तता गौरव का प्रतीक नहीं, संतुलन सम्मान का प्रतीक बने,
और जहाँ मानसिक स्वास्थ्य पर बातचीत कमज़ोरी नहीं, परिपक्वता मानी जाए।

आइए लोगों को व्यस्तता से नहीं, संवेदना से समझें

अगली बार यदि कोई कहे— मुझे समय नहीं मिला…तो इसे केवल एक बहाना न समझें।
शायद वह अपनी किसी अदृश्य लड़ाई में उलझा हो। शायद वह आपको नहीं, खुद को खो रहा हो।

हमारा समाज तभी स्वस्थ होगा
जब हम यह समझेंगे कि मनुष्य मशीन नहीं है— उसकी व्यस्तता हमेशा काम का बोझ नहीं,
कभी-कभी दर्द की चुप्पी भी होती है।