फूलों से पहले आईना
(शिक्षक दिवस पर सम्मान और जवाबदेही की काव्यात्मक पुकार)
लेखक:आचार्य रमेश सचदेवा
मंच सजा है, रोशनियाँ, माला, भाषण, तालियाँ—
पर धूल-धूसरित उस खड़िया से कोई पूछे ज़रा,
क्या हमने पाठ पढ़ा, या बस पाठ पढ़ाया?
क्या गुरु बचा है भीतर, या ट्यूटर ही बन पाया?
कोचिंग के पैकेज, रैंकर्स के पोस्टर—
ब्लैकबोर्ड अब रेट-कार्ड-सा दिखता है अक्सर।
अंक बढ़े, मन घटा; कौशल बना सौदा,
ज्ञान का दीप बुझा, चमका बस शोभा।
समाज भी दोषी है—तनख़्वाहें अटकी, कक्षाएँ ठसाठस,
काग़ज़ी दौड़, प्रार्थना-सभा में बस
शब्दों का रस।
सम्मान मंच पर, व्यवहार में उपेक्षा;
कहाँ है वह वातावरण, जहाँ खिलती है दीक्षा?
पर शिक्षक! तेरा व्रत भी तो कसौटी पर तौला जाए—
तैयारी तेरी पाठ से आगे, चरित्र में भी झलके भाई।
नक़ल के विरुद्ध तू खड़ा, जिज्ञासा का
दीप जला,
कह दे—“मैं गुरु हूँ, ठेकेदार नहीं,
मन का शिल्पी सदा।”
बच्चों की आँखों में विस्मय बचे, यही तो धर्म है,
पर हमनें अक्सर उसे ‘टार्गेट’ कहकर कर दिया मर्म है।
पुस्तकें बोलें जीवन, न केवल सूत्र-सवाल;
अंक ही लक्ष्य नहीं, मन का होना भी कमाल।
फूल अच्छे हैं, पर फूलों से पहले आईना ज़रूरी—
सम्मान के संग जवाबदेही की डोरी।
शिक्षक भी देखे ख़ुद को, समाज भी देखे ख़ुदाई,
तभी शिक्षा बचेगी, तभी बढ़ेगी सच की कमाई।
आओ, आज शिक्षक दिवस पर यह प्रण दोहराएँ—
हम— ट्यूटर नहीं, मार्गदर्शक बनकर कक्षा में आएँ;
हम— अंकों से पहले मन को जगाएँ;
हम— हर बच्चे की
गति से चलता पाठ बनाएँ;
हम— मंच से ज्यादा
दैनंदिन में आदर निभाएँ।
और समाज! तू भी सुन—भाषण नहीं, परिस्थिति दे,
सम्मान के साथ समर्थन दे, वादे नहीं, व्यवस्था दे।
जब गुरु सचमुच गुरु होगा, और समाज सचमुच समाज,
तभी शिक्षक दिवस होगा, वरना बस एक आयोजन आज।
माला चढ़ाने से पहले, आईना सामने रखिए—
केवल सम्मान नहीं, जवाबदेही भी रखिए।

1 comment:
सुन्दर सुर सजाने को साज बनाता हूँ ।
नौसिखिये परिंदों को बाज बनाता हूँ ।।
चुपचाप सुनता हूँ शिकायतें सबकी ।
तब दुनिया बदलने की आवाज बनाता हूँ !
समंदर तो परखता है हौंसले कश्तियों के ।
और मैं डूबती कश्तियों को जहाज बनाता हूँ !
बनाए चाहे चांद पे कोई बुर्ज ए खलीफा ।
अरे मैं तो कच्ची ईंटों से ही ताज बनाता हूँ!
Happy Teachers day
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