Wednesday, June 4, 2025

प्रदूषण के आकाश में कैद पृथ्वी की सांस – क्या हम केवल भाषणों से हरियाली लौटाएंगे?

 


🌍 प्रदूषण के आकाश में कैद पृथ्वी की सांस – क्या हम केवल भाषणों से हरियाली लौटाएंगे?

हर वर्ष 5 जून को पूरे जोश के साथ विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। लेकिन अफसोस! जैसे-जैसे इसका उत्सव भव्य होता जा रहा है, पृथ्वी का स्वास्थ्य उतना ही बिगड़ता जा रहा है। यह एक खतरनाक संकेत है कि हमारे सारे भाषण, घोषणाएं और पौधारोपण महज एक "औपचारिक पर्व" बनकर रह गए हैं।

🔭 हमने धरती का नहीं, आकाश का भी दम घोंट दिया है!

कभी नीला, स्वच्छ और विशाल आकाश मानवता का गौरव हुआ करता था। आज उसी आकाश में हमने हजारों सेटेलाइट छोड़ दिए हैं। अंतरिक्ष अन्वेषण के नाम पर हमने वायुमंडल की छाती पर बोझ डाल दिया है।     
ऊपर से हवाई जहाजों की चिल्लाहट, ड्रोन कैमरों की भरमार और एयर ट्रैफिक की बेतहाशा भीड़ — हमने हवा को ही बंधक बना लिया है।

क्या आपने सोचा है — अब प्रदूषण के पास भी भागने की जगह नहीं रही।

🧨 हम युद्ध करते हैं और शांति सम्मेलन में पर्यावरण बचाने की कसमें खाते हैं

टैंक चलाकर पेड़ों को रौंदने वाले, जलते जंगलों के बीच सैन्य अभ्यास करने वाले, मिसाइल परीक्षणों से पृथ्वी की कोख छलनी करने वालेवही लोग मंच पर आकर पर्यावरण पर आंसू बहाते हैं।

क्या यह दोहरी मानसिकता नहीं?   
क्या पर्यावरण को बचाने की कोई ग्लोबल आर्मी नहीं होनी चाहिए जो बुलेट की जगह बेलचों से काम ले?

📢 प्रचार की चकाचौंध बन गई है विनाश की स्याही

हर साल करोड़ों रुपये केवल विश्व पर्यावरण दिवस के प्रचार में खर्च होते हैं बैनर, पोस्टर, होर्डिंग्स, प्लास्टिक की सजावटें, और प्रदूषण फैलाने वाली रैलियां।

हम पेड़ बचाने के लिए जिस कागज़ का इस्तेमाल करते हैं, वो खुद एक पेड़ की लाश होती है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम पर्यावरण की रक्षा का नाटक खेल रहे हैं, और पर्दे के पीछे उसे चुपचाप मार भी रहे हैं?

🌿 अब समय है – सड़कों पर दिखावे के नहीं, घरों में व्यवहार परिवर्तन के

  1. पेड़ लगाइए — लेकिन फोटो खिंचवाकर भूल मत जाइए।
  2. प्रचार मत करिए — प्रयोग करिए
  3. सरकार से अपेक्षा मत रखिए — स्वयं शुरुआत करिए

🛑 सरकारों से अपील नहीं, सवाल चाहिए!

क्या अब भी आप Green Budget से ज्यादा Defence Budget को गौरव मानते हैं?

क्या आपकी विकास नीतियों में पेड़ काटना आसान है, लेकिन लगाने के लिए मंज़ूरी मुश्किल?

क्या नेट जीरो का मतलब सिर्फ़ विदेशों में तालियां बटोरना है या वाकई ज़मीन पर कुछ बदलना भी है?

यह लेख सिर्फ़ चेतावनी नहीं, एक पुकार है — संसद की दीवारों तक गूंजने वाली पुकार!

✍️ लेखक –

आचार्य रमेश सचदेवा
शिक्षाविद्, पर्यावरण चिंतक एवं सामाजिक लेखक

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