Saturday, June 28, 2025

"छुट्टियों का अधूरा पन्ना"


 कहानी: "छुट्टियों का अधूरा पन्ना"

लेखक : आचार्य रमेश सचदेवा 

संजय, कक्षा 7वीं का एक होशियार और प्रतिभाशाली छात्र था। वह एबीसी इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ता था, जहां उसका नाम टॉपर्स की सूची में हमेशा ऊपर रहता था। छुट्टियों में दिए गए प्रोजेक्ट्स — जैसे चार्ट बनाना, स्क्रैप बुक तैयार करना, सर्वे करना और रचनात्मक लेखन — में तो उसकी मेहनत की अलग ही पहचान थी। हर वर्ष स्कूल में उसे "सर्वश्रेष्ठ छुट्टियों के कार्य" के लिए पुरस्कार मिलता और उसके माता-पिता को भी मंच पर सम्मानित किया जाता।

2025 की गर्मियों की छुट्टियों में भी संजय को ढेर सारा कार्य मिला था। पर्यावरण पर चार्ट बनाना था, एक छोटी कहानी लिखनी थी, विज्ञान विषय पर एक स्थानीय सर्वे रिपोर्ट तैयार करनी थी और साथ ही "छुट्टियों में बिताए पलों का अनुभव" विषय पर हिन्दी और अंग्रेज़ी में लेख लिखना था।

छुट्टियाँ बीत गईं। स्कूल फिर से खुला। बच्चे उत्साहित थे, कोई स्क्रैपबुक दिखा रहा था, कोई मॉडल और कोई निबंध पढ़कर सुना रहा था। संजय भी अपने सभी कार्य समय पर और सुंदर ढंग से तैयार करके लाया था — सिवाय एक काम के।

हिन्दी और अंग्रेज़ी का जो लेख था — दादा-दादी के साथ बिताए गए पलों का वर्णन वह संजय ने अधूरा छोड़ दिया था।

जब हिन्दी अध्यापक ने उससे पूछा, “संजय, तुम्हारा लेख कहाँ है? बाकी तो सब कार्य बेहतरीन है।

संजय की आंखों में एक अजीब-सी उदासी उतर आई। उसने धीमे स्वर में कहा,
सर… मैंने वह लेख नहीं लिखा…

क्यों?” अंग्रेज़ी अध्यापिका ने आश्चर्य से पूछा।

संजय ने रुंधे गले से उत्तर दिया,
क्योंकि मेरे मम्मी-पापा, दादा-दादी को इस बार वृद्धाश्रम छोड़ आए हैं। मैंने उन्हें रोते हुए जाते देखा… मैं वहां जाना चाहता था, पर मुझे भी मना कर दिया गया। छुट्टियों में मैं उनके बिना बहुत अकेला रहा। उनके बिना वह लेख मेरे लिए कोई रचनात्मक कार्य नहीं, बल्कि एक दर्द था… जो मैं शब्दों में नहीं ढाल सका।

कक्षा में एक सन्नाटा छा गया।

शिक्षकों की आंखें नम हो गईं। वह कार्य जो हर वर्ष पुरस्कार के लिए होता था, आज एक भावुक प्रश्न बन गया था — क्या हमारी शिक्षा केवल अंक और इनामों के लिए है या संवेदनाओं की भी कोई जगह है?

स्कूल की प्रधानाचार्या ने जब यह बात सुनी, तो उन्होंने न केवल संजय को विशेष सम्मान दिया, बल्कि एक नया विषय पूरे स्कूल के लिए घोषित किया —    
परिवार के बड़ों का महत्व

और इस विषय पर एक संगोष्ठी रखी गई, जिसमें बच्चों के साथ उनके माता-पिता को भी आमंत्रित किया गया।

संजय की खामोशी ने एक बहुत बड़ी आवाज़ उठा दी थी — उस पीढ़ी की आवाज़ जो संवेदना और संस्कार दोनों को संभालना चाहती है।

अधूरा लेख उस दिन अधूरा नहीं रहा, वह समाज का आईना बन गया।

7 comments:

Sarvottam Sharma said...

वर्तमान का दर्पण

Director, EDU-STEP FOUNDATION said...

आभार

Anonymous said...

Good Thought

Amit Behal said...

दिल को छू गई💐

Director, EDU-STEP FOUNDATION said...

Thanks

Director, EDU-STEP FOUNDATION said...

आभार

Anonymous said...

Heart touching real story.