Monday, June 2, 2025

"परिवार ऑनलाइन है, भावनाएं ऑफलाइन!"

 


"परिवार ऑनलाइन है, भावनाएं ऑफलाइन!"

✍️ आचार्य रमेश सचदेवा

आज के दौर की सबसे बड़ी विडंबना यही है — परिवार अब स्क्रीन पर दिखते हैं, दिलों में नहीं।

एक समय था जब रिश्ते आंगन में पनपते थे। संवाद आंखों से होता था, हालचाल हृदय से जुड़ते थे। पर आज, रिश्ते व्हाट्सएप ग्रुप्स में बदल गए हैं, और संवाद स्माइली और स्टिकर्स में सिमट गया है। हम आधुनिक हो गए, लेकिन क्या सच में संवेदनशील भी रह गए हैं?

फैमिली ग्रुप: सूचना का मंच, आत्मीयता शून्य     

आज लगभग हर घर में कोई न कोई फैमिली ग्रुप ज़रूर है। पर उसमें आता क्या है?

  • "हैप्पी बर्थडे पापा 🎂"
  • "हैप्पी एनिवर्सरी भैया भाभी ❤️"
  • और... "शुभ प्रभात 🌸"

लेकिन जब परिवार का कोई सदस्य बाहर जाता है, किसी संकट से जूझता है, या किसी परेशानी में होता है — तो वही ग्रुप साइलेंट मोड में चला जाता है।

पर वही सदस्य अपने दोस्तों को पहले बताता है, इंस्टाग्राम स्टोरी पर लोकेशन डालता है... और घर में कोई तीसरा सदस्य ‘चौंथ’ पूछता है – "वो आ गए क्या?",  "कब गए थे?",  "क्यों गए थे?"

यह रिश्तों का साक्षात अपमान है। यह बताता है कि हमने तकनीक तो अपना ली, पर आत्मीयता को छोड़ दिया।

शब्द हैं, संवाद नहीं। समूह है, समर्पण नहीं।          
आज रिश्ते "Seen" में बदल गए हैं, जवाब "Typing..." में अटका रहता है, और संवेदना "Last Seen Recently" हो चुकी है।

हमने परिवारों को डिजिटल बना दिया है, भावनाओं को म्यूट कर दिया है,
और जीवन को फ़ॉरवर्डेड मैसेज में उलझा दिया है।

हम विदेश क्यों जाएं, जब हमने घर को ही पराया बना लिया है
हमारे व्यवहार में पश्चिमी जीवनशैली की नकल इतनी गहराई तक समा चुकी है कि
भावनाएं बोझ लगती हैं, ज़िम्मेदारियां पुराने ख्याल लगते हैं, और रिश्ते... केवल "रीएक्ट" और "ब्लू टिक" तक सीमित रह गए हैं।

जहां पहले घर लौटते ही माँ की आंखें दरवाज़े पर होती थीं, आज लोकेशन ऑन होती है।
जहां पहले हर बात सबसे पहले परिवार को बताई जाती थी, आज "स्टेटस डाल दिया है, सबको पता चल गया होगा" जैसी सोच चल रही है।

सरकारें इमारतें बना रही हैं, लेकिन हम दिलों की नींव खो रहे हैं 
आज भारत डिजिटल इंडिया की ओर बढ़ रहा है — सड़कें, पुल, तकनीक, ऐप्स — सब उपलब्ध हैं।
परंतु यदि भारतीयता की आत्मा — आत्मीयता, परंपरा और परिवार की गरिमा — को हमने खो दिया,
तो अगली पीढ़ी को खून के रिश्ते सिर्फ PDF में मिलेंगे, एहसासों में नहीं।

यह सिर्फ तकनीकी परिवर्तन नहीं — यह सामाजिक क्षरण है        
आजकल कई बुज़ुर्ग माता-पिता व्हाट्सएप ग्रुप में भी चुपचाप हैं। वे इंतज़ार करते हैं कि कोई पोता-पोती पूछे – "नाना जी कैसे हैं?", पर जवाब में सिर्फ GIFs या फॉरवर्डेड भक्ति संदेश आते हैं।

यह समाज गूंगा नहीं हुआ है, यह समाज भावनात्मक रूप से बहरा हो गया है।

समाधान की ओर कुछ संकल्प — रिश्ते बचेंगे, तो समाज बचेगा

  1. परिवार के ग्रुप को केवल शुभकामना मंच न बनाएं – सुख-दुख सब साझा करें।         
  2. कोई घर से बाहर जा रहा हो, तो ग्रुप पर खुद बताए – लोकेशन, कार्य, अनुमानित वापसी।
  3. बीमार हो, ऑपरेशन हो, मन उदास हो – बताएं, छिपाएं नहीं।
  4. कैसे हो?” यह सवाल फोन पर, आवाज़ में, दिल से पूछें – सिर्फ मैसेज से नहीं।
  5. महीने में एक बार वीडियो कॉल से पूरे परिवार को जोड़ें – जैसे कभी चौपाल लगती थी।

आइए रिश्तों को फिर से जीवित कीजिए, वरना पीढ़ियां खो जाएंगी।  व्हाट्सएप ग्रुप्स संवाद का माध्यम हो सकते हैं — पर संबंधों का विकल्प नहीं।

आइए, इस लेख को पढ़कर बस "अच्छा लिखा है" न कहें — बल्कि आज ही किसी अपने को फोन करें और कहें – मैं हूं... सिर्फ ऑनलाइन नहीं — सच्चे साथ में भी।

✒️ लेखक परिचय:    
आचार्य रमेश सचदेवा – वरिष्ठ शिक्षाविद, सामाजिक विश्लेषक एवं संस्कार और स्क्रीन के बीच जैसी पुस्तकों के लेखक। परिवार, समाज और संस्कृति पर गहन चिंतन और सतत लेखन।

 

7 comments:

Anonymous said...

आज के पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर सोशल मीडिया के प्रभाव का जीवंत विश्लेषण किया है आपने सर l इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं l

Anonymous said...

Tariki ki rah par h na. Sman ikadha karne ki hod me sab Bhool rhe h rishto ko.

Director, EDU-STEP FOUNDATION said...

आभार आपका

Director, EDU-STEP FOUNDATION said...

Really

Dr K S Bhardwaj said...

मशीनी युग क्व अभिशाप

Anonymous said...

Bhut acha

Amit Behal said...

ऑनलाइन संबंध बस वर्चुअल वर्ल्ड में ही निभते हैं,,,