Wednesday, June 18, 2025

क्या हर मध्यस्थता गलत है? – ऑपरेशन सिंदूर और भारत की स्पष्ट नीति पर एक संतुलित दृष्टिकोण

                        

क्या हर मध्यस्थता गलत है? – ऑपरेशन सिंदूर और भारत की स्पष्ट नीति पर एक संतुलित दृष्टिकोण

लेखक – आचार्य रमेश सचदेवा

शिक्षाविद्, विचारक एवं सामाजिक विश्लेषक
G25 EDU-STEP PVT LTD.

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच हुई एक 35 मिनट की बातचीत चर्चा में है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर हुई इस वार्ता में प्रधानमंत्री ने साफ शब्दों में कहा – भारत ने कभी किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकारी थी, न करेगा। यह कथन भले ही राष्ट्रीय आत्मसम्मान का प्रतीक लगे, लेकिन क्या हर बार मध्यस्थता को अस्वीकार करना ही सही होता है?

क्या हर समस्या आपसी बातचीत से सुलझी है?

इतिहास गवाह है कि कई राष्ट्रों के बीच लंबे विवाद केवल आपसी संवाद से नहीं सुलझ सके:

मिस्र-इज़राइल शांति समझौता (1978) – अमेरिका की मध्यस्थता में हुआ।

सर्बिया-कोसोवो संघर्ष (1999) – संयुक्त राष्ट्र व NATO की भूमिका अहम रही।

अमेरिका-तालिबान समझौता (2020) – कतर जैसे देशों ने मध्यस्थता निभाई।

यह स्पष्ट करता है कि कई बार तीसरे पक्ष की भूमिका जरूरी हो सकती है – विशेषकर जब वार्ता असफल हो जाए या हिंसा चरम पर पहुंच जाए।

भारत का रुख – स्वाभिमान या रणनीतिक सख्ती?

भारत की यह नीति कि वह कश्मीर या आतंकवाद पर किसी भी तीसरे पक्ष की दखलअंदाज़ी स्वीकार नहीं करेगा, उसके संप्रभु निर्णय अधिकारों और संवेदनशील मुद्दों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से उचित है। लेकिन यह भी उतना ही जरूरी है कि हर स्थिति को एक ही चश्मे से न देखा जाए।

मध्यस्थता – हमेशा दोष नहीं, कभी समाधान भी

यदि दो पक्ष आपसी बातचीत में पूर्णतः विफल हो चुके हों, और आम जनजीवन संकट में हो – तब एक निष्पक्ष, विश्वसनीय और तटस्थ मध्यस्थ की भूमिका 'सुलहकर्ता' के रूप में काम कर सकती है।

एक पारिवारिक दृष्टांत:

जैसे दो अभिभावकों के बीच झगड़ा हो जाए, तो यदि वे आपसी समझ से हल निकाल लें – तो सबसे उत्तम। लेकिन अगर बात नहीं बने, तो परिवार का कोई बुज़ुर्ग या गुरुजन हस्तक्षेप कर परिवार को टूटने से बचा सकते हैं। क्या ऐसे हस्तक्षेप को हम कमजोरी कहेंगे?

भारत का यह रुख प्रशंसनीय है कि वह आतंकी घटनाओं पर कठोर और निर्णायक बना रहे। परंतु यह भी आवश्यक है कि देश ऐसे संवादहीन हालात में, जहां मानवीय संकट गहरा हो, संवेदनशील और रणनीतिक रूप से लचीला भी बने।

तीसरे की मध्यस्थता को पूरी तरह नकारना उचित नहीं, और न ही हर मध्यस्थता को अपनाना विवेक है।

वास्तविक बुद्धिमत्ता है – समय, परिस्थिति और परिणामों को देखकर निर्णय लेना।

संवाद से समाधान हो, तो श्रेष्ठ।

संवाद न हो, तो मध्यस्थता भी विकल्प हो सकता है – बशर्ते उसमें नीयत साफ और उद्देश्य केवल शांति हो।

3 comments:

Anonymous said...

Right

Director, EDU-STEP FOUNDATION said...

Thanks. Please update your name or email id

Mahesh Narang said...

सही दृष्टिकोण