Monday, June 30, 2025

"Guardians of Knowledge: Why Academicians Must Embrace Intellectual Property"


 "Guardians of Knowledge: Why Academicians Must Embrace Intellectual Property"

Written by : Acharya Ramesh Sachdeva

In the grand corridors of learning and discovery, academicians have long stood as the torchbearers of knowledge. They write, research, innovate, and inspire—shaping the very fabric of society through education and invention. Yet, in today’s rapidly evolving digital and global landscape, one critical pillar often remains underappreciated in the academic world: Intellectual Property (IP).

What is Intellectual Property, and Why Should it Matter?

Intellectual Property refers to creations of the mind—research findings, books, inventions, artistic works, educational methodologies, software, and more—that can be legally protected. For academicians, this includes:

  • Research papers and journal articles

  • Patents for innovations and experiments

  • Educational tools, models, and teaching aids

  • Books, lecture notes, and digital content

  • Software, apps, and algorithms

These are not just outputs—they are assets. And like any asset, they deserve recognition, protection, and potential commercial value.

The Hidden Risks of Ignoring IP

  1. Loss of Recognition: Without IP protection, others may replicate or misuse original ideas without crediting the creator. Academic plagiarism and idea theft are real threats.

  2. Missed Financial Opportunities: A patented innovation or copyrighted course module can generate revenue through licensing or partnerships—something most academicians never consider.

  3. Dilution of Academic Impact: Ideas that are not protected may be modified, misinterpreted, or even misused—diminishing their academic integrity and value.

  4. Legal Vulnerabilities: Sharing unprotected work in conferences, collaborations, or online can result in disputes and conflicts over ownership.

Why Now More Than Ever?

The digital revolution has transformed how content is created, shared, and consumed. AI tools, online journals, open-source platforms, and social media make it both easier to share and easier to copy. In this environment, safeguarding academic output becomes not just wise—it becomes urgent.

Additionally, funding agencies, institutions, and governments are increasingly valuing innovation. IP rights serve as markers of originality and seriousness in research. In many countries, they even influence grant approvals, promotions, and academic rankings.

A Culture Shift Needed in Academia

Academicians must begin to see themselves not only as knowledge disseminators but also as knowledge creators. And creators have rights.

Institutions, too, must evolve—by:

  • Offering IP awareness sessions for faculty and students

  • Supporting the filing of patents, copyrights, and trademarks

  • Encouraging collaboration with IP experts and legal consultants

  • Recognising and rewarding IP contributions in evaluations

From Inspiration to Protection

Knowledge is power—but in today’s world, protected knowledge is empowering.

Academicians have always played a vital role in the progress of civilisation. Now, they must take the next step: ensuring that the fruits of their intellect are not only shared but secure. Taking intellectual property seriously is not about locking ideas away—it’s about ensuring they are credited, valued, and preserved for future generations.

Let us, as educators and thinkers, not just light the path of knowledge—but protect the flame that fuels it.

Sunday, June 29, 2025

छतरी – एक छोटी सी छांव, जीवन की बड़ी राहत

 

🌂 "छतरी – एक छोटी सी छांव, जीवन की बड़ी राहत" 🌂

छोटा सा आसमान लिए चलता है साथ,
धूप में छांव, बरसात में बनता है हाथ।
न रंग देखे, न जात-पात,
छतरी सबके लिए है बरकत की बात।

छतरी, जिसे छाता भी कहा जाता है, एक ऐसा उपकरण है जिसका उपयोग बारिश या धूप से बचने के लिए किया जाता है। यह एक गोल, तहदार संरचना होती है जो आमतौर पर कपड़े या प्लास्टिक से बनी होती है और एक हैंडल से जुड़ी होती है। 

84 खंभों की छतरी

84 खंभों की छतरी, जिसे चौरासी खंभों की छतरी भी कहा जाता है, राजस्थान के बूंदी शहर में स्थित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्मारक है। यह छतरी 17वीं शताब्दी में राव राजा अनिरुद्ध सिंह द्वारा अपनी धाय (पालक) मां देवा की याद में बनवाई गई थी। 84 खंभों पर बनी यह दो मंजिला इमारत अपनी स्थापत्य कला और जटिल नक्काशी के लिए जानी जाती है। 

इतिहास की छांव में छतरी

छतरी का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। प्राचीन मिस्र, चीन और भारत में इसे शाही वस्तु माना जाता था। भारत में राजाओं के सिर पर छत्र लगाना प्रतिष्ठा का प्रतीक हुआ करता था। फिर यह शानो-शौकत से निकलकर आम जनता तक पहुंची — और आज यह हर गली, हर बाजार में देखने को मिलती है।


🎨 फैशन का रंग – छतरी बन गई स्टाइल का हिस्सा

आज की छतरी सिर्फ भीगने से बचाने का साधन नहीं, एक फैशन स्टेटमेंट भी बन चुकी है। रंग-बिरंगी, फूलदार, ट्रांसपेरेंट, छोटी-बड़ी, फोल्डिंग और ऑटोमैटिक — हर उम्र और पसंद के अनुसार छतरियों की वैरायटी बाज़ार में मौजूद है। स्कूल के बच्चों से लेकर कॉलेज की लड़कियों तक, अब छतरी भी उनकी पहचान बनती जा रही है।


🧓 बुज़ुर्गों की छड़ी भी, रक्षा भी

गर्मी के दिनों में, जब मई-जून की धूप चुभने लगती है, तो बुज़ुर्गों के लिए छतरी धूप से बचाव का साधन बनती है। बारिश में भी यह उन्हें गीलेपन से बचाती है। कई बार यह छड़ी का काम भी देती है — जिसे वे सहारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। छतरी उनके जीवन की एक उपयोगी साथी है।


🏠 गरीब का सहारा – कंधे पर छोटा घर

उन गरीब लोगों के लिए जो सड़क पर काम करते हैं, छतरी उनके लिए चलता-फिरता घर बन जाती है। चाहे चाय बेचने वाला हो या सब्जी वाला, या फिर कोई राजमिस्त्री — छतरी उन्हें धूप, बारिश और तपिश से बचाती है। यह उनकी रोज़ी-रोटी की रक्षा करती है।


📚 बच्चों की पढ़ाई और छतरी

बारिश के मौसम में बच्चों की किताबें और कॉपियां भीग न जाएं, इसके लिए मां-बाप सबसे पहले उन्हें छतरी दिलाते हैं। स्कूल यूनिफॉर्म में हाथ में रंगीन छतरी लिए बच्चे, जीवन के प्रति सुरक्षा और जिम्मेदारी की पहली सीख ले रहे होते हैं। छतरी बचपन से अनुशासन और सावधानी का पाठ पढ़ाती है।


U for Umbrella – अंग्रेज़ी का प्यारा अक्षर

अंग्रेज़ी वर्णमाला में 'U' के लिए सबसे पहली छवि होती है Umbrella की। बच्चों को यह शब्द सबसे पहले याद होता है — क्योंकि यह उनके जीवन में बहुत जल्दी शामिल हो जाता है। किताबों से लेकर चित्रों तक, और कहानियों से लेकर कविताओं तक, ‘अम्ब्रेला’ एक प्रिय पात्र बन चुका है।


🌧️ छतरी है जीवन का सरल साथी

छतरी केवल मौसम से बचाने का यंत्र नहीं, बल्कि यह भारतीय जनजीवन का हिस्सा बन चुकी है। यह हमारी संस्कृति, सुरक्षा, सहारा, फैशन और शिक्षा से जुड़ी हुई है। एक छोटी सी छतरी, कितनी बड़ी भूमिका निभाती है, यह हम तभी समझते हैं जब अचानक बारिश में हम इसके बिना भीग रहे होते हैं।

Saturday, June 28, 2025

"छुट्टियों का अधूरा पन्ना"


 कहानी: "छुट्टियों का अधूरा पन्ना"

लेखक : आचार्य रमेश सचदेवा 

संजय, कक्षा 7वीं का एक होशियार और प्रतिभाशाली छात्र था। वह एबीसी इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ता था, जहां उसका नाम टॉपर्स की सूची में हमेशा ऊपर रहता था। छुट्टियों में दिए गए प्रोजेक्ट्स — जैसे चार्ट बनाना, स्क्रैप बुक तैयार करना, सर्वे करना और रचनात्मक लेखन — में तो उसकी मेहनत की अलग ही पहचान थी। हर वर्ष स्कूल में उसे "सर्वश्रेष्ठ छुट्टियों के कार्य" के लिए पुरस्कार मिलता और उसके माता-पिता को भी मंच पर सम्मानित किया जाता।

2025 की गर्मियों की छुट्टियों में भी संजय को ढेर सारा कार्य मिला था। पर्यावरण पर चार्ट बनाना था, एक छोटी कहानी लिखनी थी, विज्ञान विषय पर एक स्थानीय सर्वे रिपोर्ट तैयार करनी थी और साथ ही "छुट्टियों में बिताए पलों का अनुभव" विषय पर हिन्दी और अंग्रेज़ी में लेख लिखना था।

छुट्टियाँ बीत गईं। स्कूल फिर से खुला। बच्चे उत्साहित थे, कोई स्क्रैपबुक दिखा रहा था, कोई मॉडल और कोई निबंध पढ़कर सुना रहा था। संजय भी अपने सभी कार्य समय पर और सुंदर ढंग से तैयार करके लाया था — सिवाय एक काम के।

हिन्दी और अंग्रेज़ी का जो लेख था — दादा-दादी के साथ बिताए गए पलों का वर्णन वह संजय ने अधूरा छोड़ दिया था।

जब हिन्दी अध्यापक ने उससे पूछा, “संजय, तुम्हारा लेख कहाँ है? बाकी तो सब कार्य बेहतरीन है।

संजय की आंखों में एक अजीब-सी उदासी उतर आई। उसने धीमे स्वर में कहा,
सर… मैंने वह लेख नहीं लिखा…

क्यों?” अंग्रेज़ी अध्यापिका ने आश्चर्य से पूछा।

संजय ने रुंधे गले से उत्तर दिया,
क्योंकि मेरे मम्मी-पापा, दादा-दादी को इस बार वृद्धाश्रम छोड़ आए हैं। मैंने उन्हें रोते हुए जाते देखा… मैं वहां जाना चाहता था, पर मुझे भी मना कर दिया गया। छुट्टियों में मैं उनके बिना बहुत अकेला रहा। उनके बिना वह लेख मेरे लिए कोई रचनात्मक कार्य नहीं, बल्कि एक दर्द था… जो मैं शब्दों में नहीं ढाल सका।

कक्षा में एक सन्नाटा छा गया।

शिक्षकों की आंखें नम हो गईं। वह कार्य जो हर वर्ष पुरस्कार के लिए होता था, आज एक भावुक प्रश्न बन गया था — क्या हमारी शिक्षा केवल अंक और इनामों के लिए है या संवेदनाओं की भी कोई जगह है?

स्कूल की प्रधानाचार्या ने जब यह बात सुनी, तो उन्होंने न केवल संजय को विशेष सम्मान दिया, बल्कि एक नया विषय पूरे स्कूल के लिए घोषित किया —    
परिवार के बड़ों का महत्व

और इस विषय पर एक संगोष्ठी रखी गई, जिसमें बच्चों के साथ उनके माता-पिता को भी आमंत्रित किया गया।

संजय की खामोशी ने एक बहुत बड़ी आवाज़ उठा दी थी — उस पीढ़ी की आवाज़ जो संवेदना और संस्कार दोनों को संभालना चाहती है।

अधूरा लेख उस दिन अधूरा नहीं रहा, वह समाज का आईना बन गया।

Friday, June 27, 2025

बैंक और बीमा पेंशनधारियों का दर्द: पेंशन अपडेशन की अनदेखी कब तक?

 


 बैंक और बीमा पेंशनधारियों का दर्द: पेंशन अपडेशन की अनदेखी कब तक?

 आचार्य रमेश सचदेवा

देश के आर्थिक ताने-बाने को सुदृढ़ करने में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित करने वाले बैंक और बीमा क्षेत्र के सेवानिवृत्त कर्मचारी आज स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। वर्षों से पेंशन अपडेशन की मांग कर रहे इन पेंशनधारियों की आवाज़ें, अब तक सरकार और संबंधित विभागों की फाइलों में दबकर रह गई हैं।

 बैंक पेंशनधारियों की दशकों पुरानी मांग

1995 में पेंशन योजना लागू होने के बाद से अब तक कोई पेंशन संशोधन (अपडेशन) नहीं हुआ है।
हजारों पेंशनधारी आज भी ₹5,000–₹10,000 की मासिक पेंशन पर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं,
जबकि वे 30 से 35 वर्षों तक राष्ट्र की बैंकिंग व्यवस्था को कंधों पर ढोते रहे।

सरकार द्वारा बार-बार यह कहने के बावजूद कि विषय पर विचार चल रहा है,” अब तक कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है। यही नहीं, सरकारी कर्मचारियों को नियमित पेंशन अपडेशन दिया जाता है, परंतु बैंक कर्मचारियों को उसी संवैधानिक अधिकार से वंचित रखा गया है।

 बीमा पेंशनधारी भी न्याय की राह तक रहे

LIC और अन्य सार्वजनिक बीमा कंपनियों के सेवानिवृत्त कर्मचारी भी समान पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं।
1995 की पेंशन योजना के अंतर्गत आने वाले इन कर्मचारियों की भी पेंशन आज तक अपडेशन से वंचित है।

हालांकि इस संबंध में न्यायालयों में कई याचिकाएं लंबित हैं, और कुछ मामलों में आदेश भी आए हैं, लेकिन अब तक कोई व्यवहारिक कार्यान्वयन नहीं हो सका है। LIC जैसी संस्था, जो अपने लाभ और प्रतिष्ठा के लिए जानी जाती है, उसके पूर्व कर्मचारी आज जीवन के अंतिम पड़ाव पर आर्थिक असुरक्षा और उपेक्षा का शिकार हैं।

 सम्मान के साथ जीवन जीना भी अधिकार है

सेवानिवृत्त कर्मचारी यह प्रश्न पूछने को विवश हैं कि:

क्या हमने सिर्फ काम किया — या राष्ट्रनिर्माण में भागीदारी निभाई?”

जब देश में वृद्धावस्था पेंशन, सामाजिक सुरक्षा और सम्मानजनक जीवन की बात होती है, तो क्या यही अपेक्षा नहीं की जाती कि जिन्होंने दशकों तक सेवा दी, उन्हें सम्मान के साथ जीने का हक मिले?

 सरकार से आग्रह: हो अब निर्णायक पहल

बैंक और बीमा दोनों क्षेत्रों के पेंशनधारियों की मांगें अब केवल संगठन या ज्ञापन तक सीमित नहीं रहीं —
यह अब एक सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा का प्रश्न बन चुकी हैं।

सरकार और संबंधित मंत्रालयों से निवेदन है कि:

  1. बैंक और बीमा पेंशनधारियों का पेंशन अपडेशन तुरंत लागू किया जाए
  2. महंगाई के अनुसार समान रूप से DA (महंगाई भत्ता) दिया जाए
  3. सभी पेंशनधारियों को न्यायोचित और गरिमामय जीवन यापन का अवसर मिले

 पेंशन कोई कृपा नहीं, यह एक सेवा का सम्मान है

आज आवश्यकता है कि समाज, मीडिया, और नीति-निर्माता यह समझें कि
पेंशनधारी अब चुप नहीं हैं — वे संगठित, सजग और समर्पित हैं।
उनकी आवाज़ न केवल न्याय की मांग है, बल्कि यह राष्ट्र के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक भी है।

 

Why is water often referred to as NaCl (salt water), even though it may contain sulphates and phosphates too?

 


Why is water often referred to as NaCl (salt water), even though it may contain sulphates and phosphates too?


1. NaCl is the dominant and most recognisable salt in water

  • In natural water bodies like oceans, rivers, and even groundwater, many dissolved minerals and salts are present.

  • Sodium chloride (NaCl) is the most abundant salt in most of these, especially in seawater, which contains about 85–90% NaCl out of all dissolved salts.

  • That’s why, when we casually refer to salt water, we usually mean water rich in NaCl.


⚗️ 2. Other salts like sulphates and phosphates are present but in smaller amounts

  • Sulfates (SO₄²⁻), phosphates (PO₄³⁻), magnesium, calcium, and nitrates are also present in water — but in much smaller concentrations.

  • For example, seawater has:

    • Na⁺ and Cl⁻ (sodium and chloride) – ~90%

    • Mg²⁺, Ca²⁺, K⁺ – 10%

    • Sulfates, carbonates, bromides – trace amounts

    • Phosphates – very small amounts (usually in parts per million or less)


3. NaCl is chemically simple and easy to represent

  • NaCl (table salt) dissolves fully into Na⁺ and Cl⁻ ions, making it ideal for scientific study and reference.

  • It's often used in labs and textbooks to explain conductivity, osmosis, and ionic solutions, even if real water has a more complex mix.


Summary:

ReasonExplanation
Most abundant       NaCl is the main salt in seawater and many brackish water sources
Easy to represent       Chemically simple and commonly understood by everyone
Others are minor       Sulphates and phosphates exist, but in much smaller amounts
Conventional usage       "Salt water" often just means “NaCl-rich water” for general understanding

Wednesday, June 25, 2025

शिक्षक भी एक इंसान हैं — उन पर भी अपेक्षाओं का असहनीय बोझ है


 शिक्षक भी एक इंसान हैं — उन पर भी अपेक्षाओं का असहनीय बोझ है

✍️ लेखक: आचार्य रमेश सचदेवा

जब हम "शिक्षक" शब्द सुनते हैं, तो हमारे मन में एक आदर्श छवि उभरती है — अनुशासित, ज्ञानवान, शांतचित्त, और सदैव प्रेरित करने वाले व्यक्तित्व की। लेकिन क्या कभी हमने यह सोचा है कि उस शिक्षक के भीतर भी एक मनुष्य होता है — जिसकी अपनी भावनाएँ, सीमाएँ, संघर्ष और थकान होती है?

आज के युग में शिक्षक पर केवल शैक्षणिक नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक, तकनीकी, प्रशासनिक और भावनात्मक दायित्वों का ऐसा बोझ है, जिसे समझना और स्वीकार करना बहुत आवश्यक है।

1. पाठ्यक्रम से अधिक अपेक्षाएं

शिक्षक से अपेक्षा की जाती है कि वह:

  • हर बच्चा समझे, अच्छा अंक लाए
  • सिलेबस समय पर पूरा हो
  • बोर्ड रिज़ल्ट 100% हो
  • बच्चों की अनुशासनहीनता भी स्वयं संभालें
  • और साथ ही प्रशासनिक कार्यों (डाटा एंट्री, UDISE, पोर्टल अपडेट्स) में भी दक्ष रहें

यह सब करते हुए वह खुद कब थकते हैं, कब तनाव में होते हैं — कोई नहीं पूछता।

2. तकनीकी दबाव और नवीनीकरण की होड़

हर महीने नई ऐप, पोर्टल, रिपोर्टिंग टूल — शिक्षक को अब न केवल पढ़ाना है, बल्कि तकनीकी रूप से भी अपडेट रहना है। चाहे कितनी भी उम्र हो, चाहे डिजिटल एक्सपोज़र न हो — कोई सहारा नहीं, केवल अपेक्षा है कि वह "सब कर लें"।

3. भावनात्मक उपेक्षा और अभिभावकों की आलोचना

जब बच्चे अच्छा प्रदर्शन करते हैं, तो श्रेय केवल छात्र या कोचिंग संस्थान को मिलता है। लेकिन जब प्रदर्शन गिरता है — उंगलियाँ शिक्षक पर उठती हैं।      
"आप पढ़ा नहीं पा रहे", "हम तो फीस भर रहे हैं, परिणाम कहां है?"    
शिक्षक की भावना, मेहनत और मानवीय त्रुटियों की कोई कद्र नहीं।

4. पारिवारिक जीवन की उपेक्षा

कभी-कभी शिक्षक के पास अपने ही बच्चों को समय देने का अवसर नहीं होता। छुट्टियाँ नहीं, त्योहारों पर ड्यूटी, परीक्षा मूल्यांकन, प्रशिक्षण — क्या हम भूल जाते हैं कि यह शिक्षक भी एक पिता, एक माता, एक बेटा/बेटी है?

5. वेतन और सम्मान में अंतर

निजी विद्यालयों में शिक्षकों को न्यूनतम वेतन दिया जाता है, पर उनसे अधिकतम प्रदर्शन की अपेक्षा की जाती है।    
सरकारी स्कूलों में वेतन भले अच्छा हो, पर कार्य बोझ और सामाजिक अपेक्षाएँ कई गुना अधिक हैं।
समाज में "शिक्षक" का सम्मान केवल भाषणों में रह गया है — वास्तविकता में नहीं।

समाधान की दिशा

  1. अपेक्षाएं सीमित करेंहर शिक्षक को भगवान मानकर उस पर बोझ डालना बंद करें।
  2. संवाद स्थापित करेंशिक्षक से भी पूछें, "आप कैसे हैं?"
  3. शिक्षक सहायता नीतिमानसिक स्वास्थ्य, तकनीकी सहयोग और प्रशिक्षण के लिए अलग सेल बने
  4. प्रेरणास्पद वातावरणजहां शिक्षक अपने आप को केवल "कार्यकर्ता" नहीं बल्कि "मार्गदर्शक" समझें
  5. शिक्षक दिवस पर सिर्फ माला न पहनाएँ — उनका समय, वेतन और सम्मान सुधारें

अब हम सब यह जान ही गए है कि शिक्षक मशीन नहीं, एक संवेदनशील मनुष्य है — जो आपके बच्चों को जीवन की राह सिखाता है, जो अपना व्यक्तिगत सुख त्याग कर बच्चों के भविष्य को संवारता है, जो स्वयं चुप रहकर दूसरों को बोलना सिखाता है।

तो आइए, समाज मिलकर कहे —

"शिक्षक भी एक इंसान हैं — और उन्हें समझना, सम्मान देना हमारा उत्तरदायित्व है।

Tuesday, June 24, 2025

बचपन को किताबों में कैद मत कीजिए — खेलें बच्चों का हक़ हैं

 


बचपन को किताबों में कैद मत कीजिए — खेलें बच्चों का हक़ हैं

✍️ आचार्य रमेश सचदेवा     
संस्थापक–निदेशक, G25 EDU-STEP Pvt. Ltd.

आज हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, जो बोर्ड परीक्षा में 95% तो ला रही है, परंतु ज़िन्दगी के मैदान में हार मान रही है। जिस उम्र में बच्चों के हाथों में गेंद, रिंग, और चाक होना चाहिए, वहां मोबाइल, कोचिंग फाइल और तनाव है।

क्या हमने कभी सोचा है कि हमने बचपन से उसका बचपन ही छीन लिया है?

बच्चों के मस्तिष्क का सर्वाधिक विकास 6 से 14 वर्ष की आयु में होता है, और यही वह समय है जब खेल-कूद, शारीरिक गतिविधियाँ और रचनात्मकता उन्हें मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से मज़बूत बनाती हैं। लेकिन अफसोस! हमने खेल को ‘समय की बर्बादी’ और पढ़ाई को ‘एकमात्र सफलता का रास्ता’ मान लिया।

खेल क्यों हैं जरूरी?

खेल केवल पसीना बहाने की प्रक्रिया नहीं है, यह मस्तिष्क के लिए एक टॉनिक है। खेल बच्चों को:

  • फोकस और निर्णय लेना सिखाते हैं
  • सहयोग और नेतृत्व की भावना जगाते हैं
  • तनाव और डर से बाहर निकालते हैं
  • और सबसे ज़रूरी – उन्हें खुश और ज़िंदा रखते हैं

समाज को चाहिए खेलों की पुनर्स्थापना

जब हर गली में क्रिकेट के विकेट की जगह कारें खड़ी हैं, जब स्कूलों में खेल मैदान की जगह बहुमंजिला इमारतें हैं, जब अभिभावकों की चिंता कितनी पढ़ाई हुई तक सीमित है तब ज़रूरत है नज़रिए को बदलने की

खेलों को विद्यालय की शोभा नहीं, नैतिक ज़िम्मेदारी बनाइए। हर स्कूल को चाहिए कि सप्ताह में कम से कम 3 घंटे खेल-कला-संवाद को दे।

अभिभावकों के लिए संदेश

आपका बच्चा यदि हर समय चिड़चिड़ा, थका हुआ या आत्मग्लानि से भरा हुआ है — तो कृपया होमवर्क नहीं, उसका बचपन जांचिए।

खेलने दो उसे...
हारने दो उसे...
गिरकर उठने दो उसे...
तभी तो वह खड़ा होगा — दुनिया की भीड़ में सबसे अलग।

किताबें ज़रूरी हैं, पर खेल अनिवार्य हैं

यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे अंकों से नहीं, व्यक्तित्व से पहचाने जाएं, तो हमें खेल को स्कूलों और जीवन की मुख्यधारा में वापस लाना ही होगा।
खेलों को पाठ्यक्रम का ‘वैकल्पिक’ हिस्सा मत बनाइए — यह बच्चों का मौलिक अधिकार है।

✍️ आचार्य रमेश सचदेवा
संस्थापक–निदेशक, G25 EDU-STEP Pvt. Ltd.
📧 g25edustep@gmail.com | 📞 +91-9416925427